प्राचीन काल में कानून बनाने की जिम्मेदारी धर्म व कानून ज्ञाता को : डॉ हरवंश दीक्षित
-महावीर भवन में मनाई गयी स्व. अशोक सिंहल की जयन्ती
प्रयागराज, 27 सितम्बर । प्राचीन काल में लोग एक जगह बैठकर निर्णय लेते थे। पहले राजा ही निर्णय देता था, वह प्रजा का रंजन करता था। पुरोहित अपनी विपन्नता में भी नैतिक व्यवस्था का संचालन करता था। उस समय राजा को सारे अधिकार प्राप्त थे। राज्य और धर्म दोनों एक ही हैं। कानून बनाने की जिम्मेदारी धर्म व कानून ज्ञाता को थी।
उक्त विचार मुख्य वक्ता उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग प्रयागराज के सदस्य डॉ हरवंश दीक्षित ने सोमवार की सायं महावीर भवन में अरूंधती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ द्वारा स्व. अशोक सिंहल के जन्म दिवस पर आयोजित ‘प्राचीन भारत में धर्म और न्याय व्यवस्था’ पर विशेष व्याख्यान में व्यक्त किया।
उन्होंने प्राचीन एवं वर्तमान की दण्ड व्यवस्था पर प्रकाश डाला। कहा कि उस समय न्याय मंत्री एवं कानून मंत्री अलग-अलग थे। न्यायपालिका को स्वतंत्र होना चाहिए, कोई दबाव न रहे। यह शुरू की व्यवस्था रही। उस समय राजा अकेले निर्णय नहीं ले सकता था। लेकिन राजा की ओर से निर्णय लिये जाते थे। सुनवाई न्यायाधीश ही करते थे। उन्होंने कहा कि आज डिजिटल होने से सारे रिकार्ड रखे जाते हैं।
अरूंधती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ के निदेशक डॉ चन्द्र प्रकाश ने कहा कि लोग सोचते हैं कि अतीत की तरफ क्यों देंखे, आगे बढ़ते रहो। लोगों की यही सोच है। जिससे हम प्राचीन परम्पराओं से कोसों दूर हो गये। लोगों की यह धारणा है कि भारत का निर्माण, न्याय व्यवस्था, शिक्षा आदि अंग्रेजों ने की। उन्होंने कहा कि श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे अशोक सिंहल स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे।
डॉ चन्द्र प्रकाश ने उनके जीवन पर प्रकाश डालते हुए बताया कि उनका जन्म 27 सितम्बर, 1926 को आगरा में हुआ। मूलतः यह परिवार ग्राम बिजौली (जिला अलीगढ़, उ.प्र.) का निवासी था। उनके पिता महावीर शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे। घर में सन्यासी तथा विद्वानों के आने के कारण बचपन से ही उनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। 1942 में प्रयाग में पढ़ते समय वह प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) के सम्पर्क में आए और उन्होंने ही सिंहलजी को स्वयंसेवक बनाया। उन्होंने अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो वे सत्याग्रह कर जेल गये। वहां से आकर उन्होंने अंतिम परीक्षा दी और 1950 में प्रचारक बन गये।
निदेशक ने बताया कि प्रचारक के नाते वे गोरखपुर, प्रयाग, सहारनपुर और फिर मुख्यतः कानपुर रहे। सरसंघचालक श्री गुरुजी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। कानपुर में उनका सम्पर्क वेदों के प्रकांड विद्वान रामचन्द्र तिवारी से हुआ। 1975 के आपातकाल के दौरान वे इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे, 1977 में वे दिल्ली प्रांत (वर्तमान दिल्ली व हरियाणा) के प्रान्त प्रचारक बने। 1981 में डा. कर्ण सिंह के नेतृत्व में दिल्ली में ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोकजी और संघ की थी। उसके बाद उन्हें ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की जिम्मेदारी दे दी गयी।
उन्होंने बताया कि अब परिषद के काम में बजरंग दल, परावर्तन, गाय, गंगा, सेवा, संस्कृत, एकल विद्यालय आदि कई नये आयाम जोड़े गये। वे परिषद के 1982 से 86 तक संयुक्त महामंत्री, 1995 तक महामंत्री, 2005 तक कार्याध्यक्ष, 2011 तक अध्यक्ष और फिर संरक्षक रहे। उनकी संगठन और नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम था कि युवकों ने छह दिसम्बर, 1992 को राष्ट्रीय कलंक के प्रतीक बाबरी ढांचे को गिरा दिया। अशोक जी काफी समय से फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित थे। इसी के चलते 17 नवम्बर, 2015 को उनका निधन हुआ।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश रणविजय सिंह ने कहा कि प्राचीन भारत में धर्म और न्याय दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता था, दोनों एक हैं। लेकिन धर्म कानून से ऊपर है। उन्होंने कहा कि राजतंत्र कुछ मामलों में बहुत अच्छा था। आपकी पत्नी हमारे यहां रह सकती है, यह हमारे संस्कार में नहीं है। धीरे-धीरे यथा राजा तथा प्रजा का विस्तार हुआ। आज सभी चीजों में ह्रास हुआ है, चरित्र में गिरावट आई है। धर्म का ह्रास तेजी से हुआ है। प्राचीन काल में लौकिक की जगह पारलौकिक दण्ड भी भोगना पड़ता था।
कार्यक्रम का संचालन चन्द्रमौलि ने किया। मुख्य रूप से विद्या भारती पूर्वी उप्र के सहमंत्री चिन्तामणि सिंह, देवेश निगम, वीके सिंह सहित सैकड़ों लोग उपस्थित रहे।