साहित्य में राष्ट्रीय चेतना की परम्परा शताब्दियों पुरानी : डॉ अवनिजेश

साहित्य और सिनेमा में दर्पण और अर्पण का सम्बन्ध : डॉ पुनीत

साहित्य में राष्ट्रीय चेतना की परम्परा शताब्दियों पुरानी : डॉ अवनिजेश

प्रयागराज, 13 नवम्बर । साहित्य में राष्ट्रीय चेतना की परम्परा शताब्दियों पुरानी है। यह पिछले 25-30 वर्षों की ही भावना मात्र नहीं है। भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हो या फिर चंद्रवरदाई की पृथ्वीराज रासो रचना हो या उसके पहले विदेशी पराधीनता के खिलाफ संगठित होने और प्रतिकार का भाव हो, राष्ट्रीयता का स्वर सर्वत्र दिखाई पड़ता है।

यह बातें दिल्ली विश्वविद्यालय के डॉ अवनिजेश अवस्थी ने हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ऑनलाइन व्याख्यानमाला के प्रथम सत्र में सम्बोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा तुलसीदास जब कहते हैं कि “जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, यद्यपि परम सनेही“ इसके पुनर्पाठ की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि यह भारत की परम्परा ही है कि बालि, सहस्त्रार्जुन और परशुराम के होते हुए भी रावण वध का दायित्व “तापस वेश विशेष उदासी“ राम के कंधों पर आता है। इसीलिए राम बनना, राम होना जीवन की उपलब्धि है।

बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग के डॉ पुनीत बिसारिया ने कहा कि साहित्य और सिनेमा में दर्पण और अर्पण का सम्बन्ध है। प्रेमचंद, सुदर्शन, यशपाल, वृंदावनलाल वर्मा, मंटू और अश्क आदि न जाने कितने साहित्यकार सिनेमा और स्क्रिप्ट लेखन में अपना भाग्य आजमाने गए लेकिन उन्हें वैसी सफलता नहीं मिली। आखिर क्या कारण है कि गोदान जैसी यशस्वी रचना भी जब फिल्म में जाती है तो वह सुपर फ्लॉप हो जाती। इसी तरह बहुत सी साहित्य की प्रसिद्ध और बहुपठित कथाएं जब फिल्म में आती हैं तो वे वैसी लोकप्रिय नहीं हो पाती। इसका कारण साहित्य का अपना अनुशासन और सिनेमा का अपना अनुशासन है। इनमें सामंजस्य बैठाने वाली रेणु की ’तीसरी कसम’ फिल्म इसीलिए सुपरहिट होती है। भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा भी इसी तर्क से सुपरहिट होती है।

इविवि हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ कृपाशंकर पाण्डेय ने कहा के समकालीन कविता में लघु मानव के बहाने जो बहस प्रारम्भ हुई वह महत्वपूर्ण है और इस लघु मानव की दृष्टि से भी साहित्य और सिनेमा को देखा जाना चाहिए। व्याख्यानमाला के संयोजक डॉ राजेश कुमार गर्ग ने कहा कि भक्ति केवल एकांतिक साधना भर नहीं है। केवल भक्ति काल को ही नहीं बल्कि शताब्दियों की भारतीय साहित्य की परम्परा को राष्ट्रीय चेतना के आलोक में देखे जाने की आवश्यकता है।