इस्लाम और हिन्दुत्व की प्रकृति भिन्न-भिन्नहृदयनारायण दीक्षित
इस्लाम और हिन्दुत्व की प्रकृति भिन्न-भिन्नहृदयनारायण दीक्षित

इस्लामी विद्वानों ने मजहब ए इस्लाम को जीवनशैली बताया है। विश्व के अनेक देशों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। वस्तुतः वे भारत पर आक्रमण करते हुए आए थे। भारत का ऐसी बर्बरता से परिचय नहीं था। वे हमलावर होकर आए थे। मुगल काल आया। उनके पास लम्बे समय तक हुकूमत रही। लेकिन मूल निवासी भारतवासियों से इस्लाम की मैत्री नहीं हुई। मजहबी आग्रह दुराग्रह बनते रहे। तब से लेकर अब तक इस्लाम और हिन्दुत्व के बीच लगातार दूरियां बढ़ती गई हैं। कभी-कभी लोग आपस में मिले भी। मिलने मिलाने के भी प्रयास कम नहीं हुए। गांधी जी ने सारी हदें तोड़कर हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रयास किए। अंततः उन्होंने कहा कि, ''इस प्रश्न पर मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं।'' रामधारी सिंह 'दिनकर' ने ’संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है, ''इस्लाम और हिन्दुत्व के बीच निकट के सम्बंध 12वीं सदी के बाद प्रारंभ हुए। प्रायः 800 वर्ष हो गए थे। आठ सदियों की संगति के बाद भी हिन्दू-हिन्दू और मुसलमान-मुसलमान रह गए। दोनों के बीच जो मिश्रण होना चाहिए था वह नहीं हो सका।''
भारत में अन्य देशों से अनेक समूह आए थे। वह सब हिन्दुत्व की रीति प्रीति में विलय कर गए। लेकिन इस्लाम अनुयायियों के मध्य वास्तविक प्रेम का वातावरण नहीं बना। वे लड़ते रहे। दिनकर ने लिखा है, ''एकता का एक आंदोलन अकबर ने चलाया था। उसे औरंगजेब ने नष्ट किया। दूसरा आंदोलन गांधी जी ने चलाया। उसे जिन्ना ने काट दिया।'' बात इतनी ही नहीं है। वस्तुतः इस्लाम और हिन्दुत्व की प्रकृति भिन्न-भिन्न है। भारत विभाजन टालने के लिए गांधी जी ने मोहम्मद अली जिन्ना को पत्र लिखा था, ''आप मुस्लिम समाज के नेता हैं। मुस्लिम आपकी बात मानते हैं। आप मुसलामानों को समझाइए कि हम सब मिलकर रहें। देश विभाजन की बात न करें।'' पत्र के जवाब में जिन्ना ने कहा, ''हम मुसलमान इतिहास से, रीति रिवाज और परम्पराओं से और आस्था से भिन्न हैं। इसलिए हम अलग राष्ट्र हैं।'' जिन्ना के इस पत्र से हिन्दू और मुसलमान के मिलन की संभावनाएं शेष नहीं रह जातीं। मजहबी रीति रिवाज में इस्लाम में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। मौलवी उलेमा संशोधित इस्लाम नहीं स्वीकार कर सकते। मुसलमान सामान्यतः किसी दूसरे से प्रभावित नहीं होते। हिन्दू प्रभावित होते हैं और प्रभावित करते भी हैं।
हिन्दुत्व का सांस्कृतिक विकास प्रश्न और तर्क के आधार पर हुआ है। हिन्दू के लिए ईश्वर की आस्था जरूरी नहीं है। हिन्दू आस्तिक भी हो सकता है और नास्तिक भी। वह दुनिया के सभी पंथों का आदर करता है। भारत ने दर्शन और ज्ञान के मामले में सारी दुनिया में प्रशंसा पाई है। लेकिन हिन्दू और मुसलमान को एक समझने के लोभ में पढ़े लिखे लोगों ने भी तमाम गलतियां की और भ्रम भी प्रचारित किए। ऐसे विद्वानों ने 20वीं सदी में प्रचार करने की शुरुआत की कि, ''हिन्दुत्व पर इस्लाम का भारी प्रभाव पड़ा है। हिन्दुइज्म एंड बुद्धिज्म (1921) में प्रकाशित ग्रंथ में चाल्र्स इलियट ने रामानुज, मध्व तथा लिंगायत पर इस्लाम का प्रभाव पड़ना बताया है।'' अपनी स्थापनाओं से चर्चा में आए डॉक्टर ताराचंद्र ने अपनी किताब में इसी विचार को आगे बढ़ाया कि शंकराचार्य पर भी इस्लाम का प्रभाव पड़ा। उन्होंने रामानुज, निंबार्क और वल्लभाचार्य और दक्षिण के आलावर सबको इस्लामी प्रभाव में ही विद्वान बनना बताया।
भारत के एक प्रसिद्ध नेता हुमायूं कबीर ने 'अवर हेरिटेज' नामक किताब में यही बातें दोहराई। डॉक्टर आबिद हुसैन ने लिखा है, ''भारतीय जीवन के प्रत्येक अंश पर मुस्लिम संस्कृति का सीधा और गहरा प्रभाव पड़ा है।'' सबसे दिलचस्प बात यह है कि इन विद्वानों ने शंकराचार्य जैसे तत्वज्ञानी को भी इस्लाम प्रभावित बताया है। आबिद हुसैन ईश्वर भक्ति को भी इस्लाम का प्रभाव बताते हैं। यह साधारण विवेचन नहीं है। बौद्धिक विवेचन में तर्क सारिणी टूट भी सकती है। लेकिन इन विद्वानों ने किसी भी तर्क तथ्य का उल्लेख नहीं किया। जान पड़ता है कि उनका लक्ष्य सत्य का अनुसंधान नहीं था। उनका लक्ष्य इस्लाम की श्रेष्ठता सिद्ध करना था। इसीलिए उन्होंने प्रख्यात दार्शनिक शंकराचार्य को इस्लाम प्रभावित बताया है।
शंकराचार्य द्वारा प्रचारित अद्वैत दर्शन और वैदिक काल से ही प्रतिष्ठित भक्ति भावना को भी वे इस्लाम के प्रभाव में विकसित तथ्य मानते हैं। प्रचार यह किया जा रहा था कि हिन्दू बहुदेववादी हैं। वे इस्लाम के प्रभाव में ही एकेश्वरवादी बने हैं। सच यह है कि हिन्दू बहुदेववादी नहीं थे। हिन्दू विचार का मुख्य ग्रंथ ऋग्वेद है। ऋग्वेद के पहले मण्डल में ही कहा गया है, ''अग्नि, वरुण अनेक देवता हैं। लेकिन परम सत्य एक है। विद्वान उसे अनेक नाम से पुकारते हैं।'' हिन्दू आस्था है कि प्रकृति के सभी रूपों में और सभी जीवों में एक ही परम तत्व प्रत्येक रूप में प्रतिरूप है। अग्नि अर्थैको भुवनम् प्रविष्टो रुपं रुपं प्रतिरूपो बभूवः। एक ही अग्नि विश्व के सभी रूपों में प्रवाहित है और रूप प्रतिरूप हो रही है।''
शंकराचार्य का जन्म केरल में हुआ था। इन लेखकों के हिसाब से केरल में इस्लाम का प्रभाव था। हिन्दुओं ने इस्लाम से एकेश्वरवाद सीखा। शंकराचार्य के दर्शन का एकेश्वरवाद इस्लाम के एकेश्वरवाद से भिन्न है। इस्लाम का ईश्वर शासक है। बुरे कार्यों के लिए दण्डित करता है। दीन के लिए काम करने वालों को प्रोत्साहित करता है। शंकराचार्य का अद्वैत यत्र, तत्र, सर्वत्र ब्रह्म की सत्ता देखता है। यह कहना नितांत असत्य है कि शंकराचार्य ने इस्लाम के प्रभाव में अपने दर्शन का विकास किया। शंकराचार्य के दर्शन में उपनिषदों की धारा है। ऋग्वेद की अनुभूति है। ऋग्वेद के एक देवता अदिति समूचे दिक्काल में उपस्थित हैं। समष्टि को आच्छादित करते हैं। समय की सत्ता का अतिक्रमण करते हैं। जो अब तक हो चुका है, वह सब अदिति ही हैं। जो वर्तमान में हैं, वह भी अदिति हैं और जो भविष्य में होने वाला है वह भी अदिति ही हैं। ऋग्वेद के ही एक अन्य देवता पुरुष भी हैं। वे भी भूत भविष्य और वर्तमान को आच्छादित करते हैं।
कुरान इस्लाम की अतक्र्य पवित्र किताब है। इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। इस्लाम की आस्था में पूरी निष्ठा अनिवार्य है। मुसलमान का शाब्दिक अर्थ भी यही है। मुसलमान अर्थात मुसल्लम ईमान। मुसल्लम यानी पूरा और ईमान अर्थात आस्था। कुरान के अनुसार अल्लाह पूरी कायनात का अकेला संचालक है। उसका कोई साझीदार नहीं। वह संपूर्ण है और एक है। इस्लामी विचारधारा में तर्क, संशय और संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। इस्लामी परंपरा में तर्क, दर्शन और दार्शनिकों का कोई इतिहास नहीं है। यहां कोई तार्किक दार्शनिक नहीं हुआ। शाहजहां का एक पुत्र दारा शिकोह दर्शन का प्रेमी था। उसने उपनिषदों का अनुवाद कराया था। वह दर्शन को समझने के लिए उत्सुक था। उसके भाई औरंगजेब ने इस्लामी विद्वानों की बैठक बुलाई और उसे इस्लाम विरोधी करार दिया। औरंगजेब ने उसकी हत्या भी करवाई।
भारतीय दर्शन में ईश्वर भी निर्वचन की परिधि में है। शंकराचार्य स्वयं तर्क करते हैं। वे असहमत विद्वानों के तर्क सुनते भी हैं। उनके दर्शन में असहमति का आदर है। शंकराचार्य को इस्लाम से प्रभावित बताने वाले विद्वान न तो इस्लाम को समझते हैं और न ही शंकराचार्य के दर्शन को। जब हिन्दू धर्म, साहित्य और जीवनशैली पर इस्लाम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब जीवन जगत् के व्यख्याता दार्शनिक आचार्य शंकर पर इस्लाम के प्रभाव का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। बहुत संभव है कि सब कुछ जानने के बावजूद वे शंकराचार्य को इस्लाम से प्रभावित बताते हैं। ऐसे ही कुछेक विद्वान भारतीय कला, सौंदर्यबोध और संगीत आदि को भी इस्लाम की देन बताते हैं। यह सर्वथा झूठ है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)