कैसे भगत सिंह जोड़ते भारत-पाक को: आर.के. सिन्हा
कैसे भगत सिंह जोड़ते भारत-पाक को
भारत-पाकिस्तान में गुजरे सात दशकों के दौरान कभी कोई बहुत मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं रहे। दोनों के बीच कई बार जंग हुई। दोनों के बीच आपस में कुछ न कुछ विवाद बना रहता है। विवाद के अनेकों कारण हैं। पर भगत सिंह इस तरह की शख्सियत हैं जिन्हें दोनों देशों की जनता आदरभाव से देखती है। भगत सिंह भारत के तो निर्विवाद नायकों में से हैं ही, वे पाकिस्तान में भी बहुत आदर के भाव से देखे जाते हैं। इस लिहाज हमें भगत सिंह के अलावा कोई दूसरी शख्सियत नहीं मिलती। पाकिस्तान के शहर लाहौर और कुछ अन्य स्थानों पर उनका जन्मदिन और शहीदी दिवस मनाया जाता है।
दरअसल, भगत सिंह और उनके दो अन्य साथियों क्रमश: राजगुरु और सुखदेव को लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 को फ़ांसी दी गई थी। उन पर इल्ज़ाम लगाया गया था कि उन्होंने एक ब्रितानी अधिकारी की हत्या की थी। पाकिस्तान में कई संगठन उन्हें देश का नायक घोषित करने की लगातार मांग भी करते रहे हैं। वहां के पंजाब प्रांत में तो वे विशेष रूप से सम्मान पाते हैं। अगर बात भारत की करें तो वे सबके नायक हैं। उनका सब आदर करते हैं।
भगत सिंह सिर्फ देशभक्त क्रांतिकारी तक सीमित नहीं हैं। वे जब फांसी पर लटकाए गए तब तक मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग करनी चालू नहीं की थी। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग 1940 से करनी शुरू की थी। उसने पाकिस्तान के हक में प्रस्ताव 23 मार्च, 1940 को उसी लाहौर में पारित किया था, जिस शहर में भगत सिंह को फांसी दी गई थी। यानी भगत सिंह के फांसी पर चढ़ने के नौ साल बाद पाकिस्तान की मांग हुई।
आमतौर पर पाकिस्तान में किसी मुस्लिम को ही नायक का दर्जा मिल पाता है। इस लिहाज से भगत सिंह सबसे अलग खड़े होते हैं। हालांकि वे अपने को किसी धर्म के साथ नहीं जोड़ते थे। वे तो अपने को नास्तिक कहते थे। उन्होंने इस मसले पर एक निबंध भी लिखा है कि वे नास्तिक क्यों हैं। इसके बावजूद घनघोर कठमुल्ला देश पाकिस्तान में भी उन्हें सम्मान मिलता है। दुर्भाग्यवश हमारे यहां भी कुछ तत्व उन्हें सच्चा सिख साबित करने पर आमादा रहते हैं। हमारे अपने पंजाब सूबे में उन्हें सिख साबित करने की कोशिश होती रही है। उनका जन्म अवश्य एक उस सिख परिवार में हुआ था जो मूलतः आर्य समाजी था।
भगत सिंह को मूरतों में कभी पगड़ी तो कभी हैट में दिखाया जाता है। उनकी संसद भवन और दिल्ली विधानसभा में प्रतिमाएं लगी हैं। संसद भवन में उन्हें पगड़ी में दिखाया गया है, जबकि दिल्ली विधानसभा में वे हैट पहने हैं। उन्हें संसद भवन में कांस्य की प्रतिमा में पगड़ी में दिखाया गया है। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को केन्द्रीय असेम्बली (अब संसद भवन) में बम फेंका था। उस घटना के लंबे अंतराल के बाद भगत सिंह की प्रतिमा संसद भवन में सन 2008 में ही स्थापित की गई थी। इसके लगते ही बवाल चालू हो गया था।
भगत सिंह पर गहन अध्ययन करने वाले दावा करते हैं कि भगत सिंह ने सन 1928 से 23 मार्च, 1931 को फांसी दिए जाने तक पगड़ी नहीं पहनी। कुछ इतिहासकारों और भगत सिंह के संबंधी तक मानते रहे हैं कि संसद भवन में लगी प्रतिमा में उन्हें सही से नहीं दिखाया गया। भगत सिंह यूरोपियन स्टाइल की हैट पहनते थे, तो फिर उन्हें पगड़ी में क्यों दिखाया गया? भगत सिंह पर शोध करने वाले जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर चमनलाल कहते हैं कि उन्हें हैट में न दिखाना गलत है। उधर, दिल्ली विधानसभा में स्थापित अर्धप्रतिमा में भगत सिंह हैट पहने हैं। इस पर दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (डीएसजीसी) ने विरोध जताया था। इसका कहना था कि भगत सिंह सिख थे और उनकी प्रतिमा में उन्हें सिख के रूप में दिखाया जाना चाहिए था।
हमारे यहां एक गलत परंपरा चालू हो गई है कि राष्ट्र विभूतियों को भी उनकी जाति या धर्म से पहचाना जाने लगा है। राम मनोहर लोहिया जीवन भर जाति तोड़ो आन्दोलन चलाने का आह्वान करते हैं। पर मैंने देखा है कि कुछ वैश्य समाज की पत्रिकाओं में उन्हें वैश्य नायक के रूप में दिखाया जाता है। जबकि, लोहिया जिंदगी भर वैश्य समाज की मुनाफाखोरी, मिलावट और टैक्स चोरी पर प्रहार करते रहे।
बहरहाल, भगत सिंह अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण भारत-पाकिस्तान के करोड़ों लोगों को अब भी प्रेरित करते हैं। वे प्रशासनिक और पुलिसिया अन्याय़ और साम्राज्यवाद के खिलाफ सबसे सशक्त प्रतीक के रूप में हमारे सामने आते हैं। भगत सिंह संभवत: देश के पहले चिंतक क्रांतिकारी थे। वे एक गहन राजनीतिक विचारक भी थे। वे लगातार लिखते-पढ़ते थे। उनसे पहले या बाद में कोई उनके कद का चिंतनशील क्रांतिकारी सामने नहीं आया। हालांकि, कम्युनिस्ट इस आधार पर उन्हें कम्युनिस्ट साबित करने की कोशिश करते रहते हैं क्योंकि उन्होंने काल कार्ल मार्क्स को भी पढ़ा था। लेकिन, वे सच्चे राष्ट्रवादी थे।
भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन भगत सिंह की विरासत को संजोकर रखने के लिए पाकिस्तान के फैसलाबाद में उनके पुश्तैनी मकान को स्मारक बनाना चाहता है। पाकिस्तान सरकार ने इस घर को हैरिटेज साइट का दर्जा दिया था, लेकिन सही तरीके से देखरेख नहीं होने के कारण फाउंडेशन ने यहां स्मारक बनाने का फैसला लिया है। फैसलाबाद को आजादी के पहले लायलपुर के नाम से जाना जाता था और शहीद भगत सिंह का जन्म यहीं पर हुआ था। फैसलाबाद के बंगा गांव में भगत सिंह के परिवार का पुश्तैनी घर था जहां वो पले-बढ़े थे।
भारत-पाकिस्तान की सरकारें अगर दोनों देशों में भगत सिंह से जुड़े प्रतीकों को एक-दूसरे के देशों के लोगों को देखने के लिए खोल दें, तो यह बड़ी और सकारात्मक पहल होगी। देखिए भारत-पकिस्तान के बीच के जटिल मसले कब पूरी तरह से हल होंगे, इसका कोई उत्तर नहीं दे सकता। लेकिन, दोनों देशों की अवाम को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर एक-दूसरे से मिलने-जुलने की अनुमति तो होनी चाहिए। जब करतारपुऱ कॉरिडोर खोला जा सकता है तो भगत सिंह से जुड़े प्रतीकों को देखने की भी अनुमति मिले तो इसमें क्या बुराई है।
करतारपुर साहिब, पाकिस्तान के नारोवाल जिले में स्थित है। यह भारत के गुरदासपुर जिले के डेरा बाबा नानक से तीन से चार किलोमीटर और लाहौर से करीब 120 किमी दूर है। यह सिखों के प्रथम गुरु, गुरुनानक देव जी का निवास स्थान था और यहीं उनका निधन भी हुआ था। फिर यहां उनकी याद में गुरुद्वारा बनाया गया था। उम्मीद की जानी चाहिए कि गुरुनानक और भगत सिंह के रास्ते पर चलते हुए पाकिस्तान, आतंकवादी मुल्क की अपनी छवि से मुक्ति पाने में कभी न कभी सफलता पा लेगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)