(मकर संक्रांति विशेष) सृष्टि में सौरमंडल के सृजन का पड़ाव

(मकर संक्रांति विशेष) सृष्टि में सौरमंडल के सृजन का पड़ाव

(मकर संक्रांति विशेष) सृष्टि में सौरमंडल के सृजन का पड़ाव

यह एक पोर है। एक बिंदु है। रेखा का एक छोर है। एक अंत है। एक प्रारम्भ है। यह सृष्टि का सूर्य पर्व है। यह कोटि -कोटि ब्रह्मांडो में से इस पृश्नि ब्रह्माण्ड के द्वितीय मन्वन्तर में वाराहकल्प के कलियुग के काली प्रथम चरण में प्रति वर्ष आने वाला वह पर्व है जो हमें जीवन के सिद्धांतों और उद्देश्यों का स्मरण कराता है। जिस सौर मंडल में हम रहते हैं, उस सौर मंडल के सर्जन का एक पड़ाव है मकर संक्रांति।



पर्व शब्द का सामान्य लोक अर्थ प्रचलन में किसी भी उत्सव या त्योहार से जुड़ा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। पर्व वस्तुतः सृष्टि के पड़ाव का द्योतक है। सृष्टि का कोई भी क्रम जब एक चक्र पूर्ण करता है वही उसका पर्व होता है। इसी आधार पर सुरमंडल की यात्रा के आधार पर वर्ष की प्रत्येक तिथि पर्व के रूप में आती है। इनमें से वे तिथियां जिनको लोकमानस या जीवन में किसी अनुष्ठान या उत्सव से जोड़ा गया है, वे उस उत्सव विशेष के पर्व के रूप में स्थापित है। इस प्रकार मानव जीवन के सभी उत्सव और त्यौहार पर्व के रूप में ही आते हैं। यह किसी तिथि विशेष के यात्रा का एक पड़ाव है। यह ठीक वैसे ही है जैसे बांस की वृद्धि होती है। एक पोर से दूसरा पोर, फिर तीसरा और इसी तरह वृद्धि का क्रम चलता है और बांस लंबा होता चलता है। मानव जीवन की यात्रा भी इसी प्रकार प्रत्येक पर्व पर आगे बढती रहती है। किसी भी तंत्र में किसी भी संधिस्थल को पर्व ही संज्ञा दी जाती है। यह उत्सव हो सकता है। जीवन हो सकता है। कोई कार्य हो सकता है। ग्रन्थ हो सकता है। शरीर के अंग हो सकते है।



सृष्टि ,सूर्य नारायण और गायत्री मंत्र : वर्तमान सृष्टि , भगवान सूर्य नारायण और गायत्री मंत्र का आपस में बहुत गहरा सम्बन्ध है। जो गायत्री मंत्र के प्रतिपाद्य देव हैं वही इस समस्त सृष्टि के भी प्रतिपाद्य देव हैं। भगवान नारायण ही इन दोनों में विद्यमान है। सूर्य तो रश्मियों का प्रभामंडल भर है। इन रश्मियों के केंद्र में जो विद्यमान है उनको मिलकर ही भगवान सूर्य नारायण की अवस्थापना है। यही नारायण भगवान विष्णु है। इसी लिए वाल्मीकि रामायण का प्रारम्भ गायत्री मंत्र के प्रथमाक्षर त से हुआ है तथा वाल्मीकि रामायण के समापन का अक्षर भी त है , क्योकि गायत्री मंत्र के समापन का अक्षर भी त ही है। अर्थात जो वाल्मीकि रामायण के प्रतिपाद्य देव हैं वही गायत्री मंत्र के भी प्रतिपाद्य देवता है - अर्थात भगवान विष्णु। आचार्यों का मत है की गायत्री मंत्र के 24 अक्षरों का विस्तार ही वाल्मीकि रामायण के 24 हजार श्लोक हैं। तात्पर्य यह कि गायत्री मंत्र, जिसको वेद माता की संज्ञा भी दी जाती है , यह किसी देवी की स्तुति नहीं है , बल्कि सीधे श्रीमन्नारायण की स्तुति है। इसमे श्री नारायण को ही केंद्रित किया गया है , ऐसा वैदिक आचार्यगण भी स्वीकार करते है। वास्तविक रूप में जब भी भारतीय पर्व परंपरा सूर्य से जुड़ती है तो बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध अपनी श्रुति परम्पपरा यानी वेदों से सम्बन्ध स्थापित होता है। लोक प्रचलन में हम जिस गायत्री मंत्र को जानते हैं वह वास्तव में सूर्य का ही मंत्र है। गायत्री मंत्र में - तत्सवितुर्वरेण्यं - में जिस सविता देवता की आराधना हम करते है वह यही सूर्य देवता है। यहां किसी गायत्री नाम की देवी भ्रम नहीं रखना चाहिए क्योकि मंत्र में हम - भर्गो देवस्य - की पूजा करते है न कि किसी देवी की। यह सविता देवता यही है जो प्रभामंडल के केंद्र में नारायण के रूप में विद्यमान है जिनको सूर्यनारायण की संज्ञा दी जाती है। यही सूर्य नारायण, यानी नारायण, यानी भगवान विष्णु है जिनकी आराधना गायत्री मंत्र के माध्यम से की जाती है। इसी नारायण से यह सृष्टि है, और संक्रांति इसी सृष्टि का एक पर्व यानी यात्रा का एक पड़ाव होता है। आचार्य श्री जगद्गुरु राघवाचार्य जी महाराज ने भी गायत्री मंत्र और वाल्मीकि रामायण के अंतरसंबंधों पर बहुत ही विस्तृत व्याख्या दी है।

खिचड़ी या मकर संक्रांति से बिलकुल नई शुरुआत होती है सृष्टि की। इस दिन से सूर्य उत्तरायण होता है, जब उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है। परम्परा से यह विश्वास किया जाता है कि इसी दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। यह वैदिक उत्सव है। इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़–तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बांटा जाता है। इस त्योहार का सम्बन्ध प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से है। प्रकृति के कारक के तौर पर इस पर्व में सूर्य देव को पूजा जाता है, जिन्हें शास्त्रों में भौतिक एवं अभौतिक तत्वों की आत्मा कहा गया है। इन्हीं की स्थिति के अनुसार ऋतु परिवर्तन होता है और धरती अनाज उत्पन्न करती है, जिससे जीव समुदाय का भरण-पोषण होता है। लगभग 80 वर्ष पूर्व उन दिनों के पंचांगों के अनुसार, खिचड़ी 12वीं या 13वीं जनवरी को पड़ती थी, किंतु अब विषुवतों के अग्रगमन (अयनचलन) के कारण 13वीं या 14वीं जनवरी को पड़ा करती थी । वर्ष 2016 में मकर संक्रांति '15 जनवरी' को मनाई गई । इस वर्ष फिर 15 जनवरी को खिचड़ी मनाई जानी है। इस दिन भगवान सूर्य की पूजा करने का विशेष विधान है। सनातन शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति से देवताओं का दिन आरंभ होता है जो कि आषाढ़ मास तक रहता है। इसी दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रांति के दिन से ही सूर्य की उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं। जबकि उत्तर भारत में यह खिचड़ी के रूप में मनाया जाता है।



इस पर्व की एक कथा गुरु गोरक्षनाथ और माता ज्वालादेवी से भी जुड़ी है। इस दिन गोरखपुर स्थित गोरखनाथ मंदिर में प्रथम खिचड़ी नेपाल के महाराजा की तरफ से चढ़ाई जाती है। ऐसा परंपरा रूप में सैकड़ों वर्षों से होता आ रहा है। ब्राह्मण एवं औपनिषदिक ग्रंथों में उत्तरायण के छह मास का उल्लेख है में 'अयन' शब्द आया है, जिसका अर्थ है 'मार्ग' या 'स्थल। गृह्यसूत्रों में 'उदगयन' उत्तरायण का ही द्योतक है जहां स्पष्ट रूप से उत्तरायण आदि कालों में संस्कारों के करने की विधि वर्णित है। किंतु प्राचीन श्रौत, गृह्य एवं धर्म सूत्रों में राशियों का उल्लेख नहीं है, उनमें केवल नक्षत्रों के संबंध में कालों का उल्लेख है। याज्ञवल्क्यस्मृति में भी राशियों का उल्लेख नहीं है, जैसा कि विश्वरूप की टीका से प्रकट है। 'उदगयन' बहुत शताब्दियों पूर्व से शुभ काल माना जाता रहा है, अत: मकर संक्रांति, जिससे सूर्य की उत्तरायण गति आरम्भ होती है, राशियों के चलन के उपरान्त पवित्र दिन मानी जाने लगी। मकर संक्रांति पर तिल को इतनी महत्ता क्यों प्राप्त हुई, कहना कठिन है। सम्भवत: मकर संक्रांति के समय जाड़ा होने के कारण तिल जैसे पदार्थों का प्रयोग सम्भव है।



संक्रांति का अर्थः इसका अर्थ है सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाना, अत: वह राशि जिसमें सूर्य प्रवेश करता है, संक्रांति की संज्ञा से विख्यात है। राशियां बारह हैं, यथा मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक , धनु, मकर, कुम्भ, मीन। मलमास पड़ जाने पर भी वर्ष में केवल 12 राशियां होती हैं। प्रत्येक संक्रांति पवित्र दिन के रूप में ग्राह्य है। मत्स्यपुराण ने संक्रांति व्रत का वर्णन दिया है। एक दिन पूर्व व्यक्ति (नारी या पुरुष) को केवल एक बार मध्याह्न में भोजन करना चाहिए और संक्रांति के दिन दांतों को स्वच्छ करके तिल युक्त जल से स्नान करना चाहिए। व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी संयमी ब्राह्मण गृहस्थ को भोजन सामग्रियों से युक्त तीन पात्र तथा एक गाययम, रुद्र एवं धर्म के नाम पर दे और चार श्लोकों को पढ़े, जिनमें से एक यह है- 'यथा भेदं' न पश्यामि शिवविष्ण्वर्कपद्मजान्। तथा ममास्तु विश्वात्मा शंकर:शंकर: सदा।।, अर्थात् 'मैं शिव एवं विष्णु तथा सूर्य एवं ब्रह्मा में अन्तर नहीं करता, वह शंकर, जो विश्वात्मा है, सदा कल्याण करने वाला है। दूसरे शंकर शब्द का अर्थ है- शं कल्याणं करोति। यदि हो सके तो व्यक्ति को चाहिए कि वह ब्राह्मण को आभूषणों, पर्यंक, स्वर्णपात्रों (दो) का दान करे। यदि वह दरिद्र हो तो ब्राह्मण को केवल फल दे। इसके उपरान्त उसे तैल-विहीन भोजन करना चाहिए और यथा शक्ति अन्य लोगों को भोजन देना चाहिए। स्त्रियों को भी यह व्रत करना चाहिए। संक्रांति, ग्रहण, अमावस्या एवं पूर्णिमा पर गंगा स्नान महापुण्यदायक माना गया है और ऐसा करने पर व्यक्ति ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। प्रत्येक संक्रांति पर सामान्य जल (गर्म नहीं किया हुआ) से स्नान करना नित्यकर्म कहा जाता है, जैसा कि देवीपुराण में घोषित है- 'जो व्यक्ति संक्रांति के पवित्र दिन पर स्नान नहीं करता वह सात जन्मों तक रोगी एवं निर्धन रहेगा; संक्रांति पर जो भी देवों को हव्य एवं पितरों को कव्य दिया जाता है, वह सूर्य द्वारा भविष्य के जन्मों में लौटा दिया जाता है।

पुण्यकालः प्राचीन ग्रंथ में ऐसा लिखित है कि केवल सूर्य का किसी राशि में प्रवेश मात्र ही पुनीतता का द्योतक नहीं है, प्रत्युत सभी ग्रहों का अन्य नक्षत्र या राशि में प्रवेश पुण्यकाल माना जाता है। हेमाद्रि एवं काल निर्णय ने क्रम से जैमिनि एवं ज्योति:शास्त्र से उद्धरण देकर सूर्य एवं ग्रहों की संक्रांति का पुण्यकाल को घोषित किया है- 'सूर्य के विषय में संक्रांति के पूर्व या पश्चात् 16 घटिकाओं का समय पुण्य समय है; चन्द्र के विषय में दोनों ओर एक घटी 13 फल पुण्यकाल है; मंगल के लिए 4 घटिकाएँ एवं एक पल; बुध के लिए 3 घटिकाएँ एवं 14 पल, बृहस्पति के लिए चार घटिकाएँ एवं 37 पल, शुक्र के लिए 4 घटिकाएँ एवं एक पल तथा शनि के लिए 82 घटिकाएँ एवं 7 पल।

सूर्य जब एक राशि छोड़कर दूसरी में प्रवेश करता है तो उस काल का यथावत ज्ञान हमारी मांसल आंखों से सम्भव नहीं है, अत: संक्रांति की 30 घटिकाएँ इधर या उधर के काल का द्योतन करती हैं। सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश काल इतना कम होता है कि उसमें संक्रांति कृत्यों का सम्पादन असम्भव है, अत: इसकी सन्निधि का काल उचित ठहराया गया है। देवीपुराण में संक्रांति काल की लघुता का उल्लेख यों है- 'स्वस्थ एवं सुखी मनुष्य जब एक बार पलक गिराता है तो उसका तीसवां काल 'तत्पर' कहलाता है, तत्पर का सौवां भाग 'त्रुटि' कहा जाता है तथा त्रुटि के सौवें भाग में सूर्य का दूसरी राशि में प्रवेश होता है। सामान्य नियम यह है कि वास्तविक काल के जितने ही समीप कृत्य हो वह उतना ही पुनीत माना जाता है।' इसी से संक्रांतियों में पुण्यतम काल सात प्रकार के माने गये हैं- 3, 4, 5, 7, 8, 9 या 12 घटिकाएं। इन्हीं अवधियों में वास्तविक फल प्राप्ति होती है। यदि कोई इन अवधियों के भीतर प्रतिपादित कृत्य न कर सके तो उसके लिए अधिकतम काल सीमाएं 30 घटिकाओं की होती हैं; किंतु ये पुण्यकाल-अवधियां षडशीति एवं विष्णुपदी को छोड़कर अन्य सभी संक्रांतियों के लिए है।'



आज के ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जाड़े का अयन काल 21 दिसंबर को होता है और उसी दिन से सूर्य उत्तरायण होते हैं। किंतु भारत में वे लोग, जो प्राचीन पद्धतियों के अनुसार रचे पंचांगों का सहारा लेते हैं, उत्तरायण का आरम्भ 14 या 15 जनवरी से मानते हैं। वे इस प्रकार उपयुक्त मकर संक्रांति से 23 दिन पीछे हैं। मध्यकाल के धर्मशास्त्र ग्रंथों में यह बात उल्लिखित है, यथा हेमाद्रि ने कहा है कि प्रचलित संक्रांति से 12 दिन पूर्व ही पुण्यकाल पड़ता है, अत: प्रतिपादित दान आदि कृत्य प्रचलित संक्रांति दिन के 12 दिन पूर्व भी किये जा सकते हैं।



पुण्यकाल के नियमः संक्रांति के पुण्यकाल के विषय में सामान्य नियम के प्रश्न पर कई मत हैं। शातातप, जाबाल एवं मरीचि ने संक्रांति के धार्मिक कृत्यों के लिए संक्रांति के पूर्व एवं उपरान्त 16 घटिकाओं का पुण्यकाल प्रतिपादित किया है; किंतु देवीपुराण एवं वसिष्ठ ने 15 घटिकाओं के पुण्यकाल की व्यवस्था दी है। यह विरोध यह कहकर दूर किया जाता है कि लघु अवधि केवल अधिक पुण्य फल देने के लिए है और 16 घटिकाओं की अवधि विष्णुपदी संक्रांतियों के लिए प्रतिपादित है। संक्रांति दिन या रात्रि दोनों में हो सकती है। दिन वाली संक्रांति पूरे दिन भर पुण्यकाल वाली होती है। रात्रि वाली संक्रांति के विषय में हेमाद्रि, माधव आदि में लम्बे विवेचन उपस्थित किए गये हैं। एक नियम यह है कि दस संक्रांतियों में, मकर एवं कर्कट को छोड़कर पुण्यकाल दिन में होता है, जबकि वे रात्रि में पड़ती हैं। इस विषय का विस्तृत विवरण तिथितत्त्व और धर्मसिंधु में मिलता है।

ग्रहों की संक्रांतिः ग्रहों की भी संक्रांतियां होती हैं, किन्तु पश्चात्कालीन लेखकों के अनुसार 'संक्रांति' शब्द केवल रवि-संक्रांति के नाम से ही द्योतित है, जैसा कि स्मृतिकौस्तुभ में उल्लिखित है। वर्ष भर की 12 संक्रांतियाँ चार श्रेणियों में विभक्त हैं- दो अयन संक्रांतियां- मकर संक्रांति, जब उत्तरायण का आरम्भ होता है एवं कर्कट संक्रांति, जब दक्षिणायन का आरम्भ होता है। दो विषुव संक्रांतियां अर्थात मेष एवं तुला संक्रांतियां, जब रात्रि एवं दिन बराबर होते हैं। वे चार संक्रांतियां , जिन्हें षडयीतिमुख अर्थात् मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन कहा जाता है तथा विष्णुपदी या विष्णुपद अर्थात् वृषभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्भ नामक संक्रांतियां।

संक्रांति के प्रकारः 'ये बारह संक्रांतियां सात प्रकार की, सात नामों वाली हैं, जो किसी सप्ताह के दिन या किसी विशिष्ट नक्षत्र के सम्मिलन के आधार पर उल्लिखित हैं; वे ये हैं- मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी एवं मिश्रिता।

घोरा रविवार, मेष या कर्क या मकर संक्रांति को, ध्वांक्षी सोमवार को, महोदरी मंगल को, मन्दाकिनी बुध को, मन्दा बृहस्पति को, मिश्रिता शुक्र को एवं राक्षसी शनि को होती है। इसके अतिरिक्त कोई संक्रांति यथा मेष या कर्क आदि क्रम से मन्दा, मन्दाकिनी, ध्वांक्षी, घोरा, महोदरी, राक्षसी, मिश्रित कही जाती है, यदि वह क्रम से ध्रुव, मृदु, क्षिप्र, उग्र, चर, क्रूर या मिश्रित नक्षत्र से युक्त हों। 27 या 28 नक्षत्र निम्नोक्त रूप से सात दलों में विभाजित हैं-



ध्रुव (या स्थिर) – उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी



मृदु – अनुराधा, चित्रा, रेवती, मृगशीर्ष



क्षिप्र (या लघु) – हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित



उग्र – पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा



चर – पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, स्वाति , शतभिषक

क्रूर (या तीक्ष्ण) – मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा

मिश्रित (या मृदुतीक्ष्ण या साधारण) – कृत्तिका, विशाखा । ऐसा उल्लिखित है कि ब्राह्मणों के लिए मन्दा, क्षत्रियों के लिए मन्दाकिनी, वैश्यों के लिए ध्वांक्षी, शूद्रों के लिए घोरा, चोरों के लिए महोदरी, मद्य विक्रेताओं के लिए राक्षसी तथा चाण्डालों, पुक्कसों तथा जिनकी वृत्तियाँ (पेशे) भयंकर हों एवं अन्य शिल्पियों के लिए मिश्रित संक्रांति श्रेयस्कर होती है।



संक्रांति का देवीकरणः आगे चलकर संक्रांति का देवीकरण हो गया और वह साक्षात् दुर्गा कही जाने लगी। देवीपुराण में आया है कि देवी वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिन आदि के क्रम से सूक्ष्म विभाग के कारण सर्वगत विभु रूप वाली है। देवी पुण्य तवं पाप के विभागों के अनुसार फल देने वाली है। संक्रांति के काल में किये गये एक कृत्य से भी कोटि-कोटि फलों की प्राप्ति होती है। धर्म से आयु, राज्य, पुत्र, सुख आदि की वृद्धि होती है, अधर्म से व्याधि, शोक आदि बढ़ते हैं। विषुव संक्रांति के समय जो दान या जप किया जाता है या अयन में जो सम्पादित होता है, वह अक्षय होता है। यही बात विष्णुपद एवं षडशीति मुख के विषय में भी है।

आजकल के पंचांगों में मकर संक्रांति का देवीकरण भी हो गया है। वह देवी मान ली गई है। संक्रांति किसी वाहन पर चढ़ती है, उसका प्रमुख वाहन हाथी जैसे वाहन पशु हैं; उसके उपवाहन भी हैं; उसके वस्त्र काले, श्वेत या लाल आदि रंगों के होते हैं; उसके हाथ में धनुष या शूल रहता है, वह लाह या गोरोचन जैसे पदार्थों का तिलक करती है; वह युवा, प्रौढ़ या वृद्ध है; वह खड़ी या बैठी हुई वर्णित है; उसके पुष्पों, भोजन, आभूषणों का उल्लेख है; उसके दो नाम सात नामों में से विशिष्ट हैं; वह पूर्व आदि दिशाओं से आती है और पश्चिम आदि दिशाओं को चली जाती है और तीसरी दिशा की ओर झांकती है; उसके अधर झुके हैं, नाक लम्बी है, उसके 9 हाथ है। उसके विषय में अग्र सूचनाएं ये हैं- संक्रांति जो कुछ ग्रहण करती है, उसके मूल्य बढ़ जाते हैं या वह नष्ट हो जाता है; वह जिसे देखती है, वह नष्ट हो जाता है, जिस दिशा से वह जाती है, वहाँ के लोग सुखी होते हैं, जिस दिशा को वह चली जाती है, वहाँ के लोग दुखी हो जाते हैं।



संक्रांति पर दान पुण्यः पूर्व पुण्यलाभ के लिए पुण्यकाल में ही स्नान दान आदि कृत्य किये जाते हैं। सामान्य नियम यह है कि रात्रि में न तो स्नान किया जाता है और न ही दान। पराशर में आया है कि सूर्य किरणों से पूरे दिन में स्नान करना चाहिए, रात्रि में ग्रहण को छोड़कर अन्य अवसरों पर स्नान नहीं करना चाहिए। यही बात विष्णुधर्मसूत्र में भी है। किंतु कुछ अपवाद भी प्रतिपादित हैं। भविष्यपुराण में आया है कि रात्रि में स्नान नहीं करना चाहिए, विशेषत: रात्रि में दान तो नहीं ही करना चाहिए, किंतु उचित अवसरों पर ऐसा किया जा सकता है, यथा ग्रहण, विवाह, संक्रांति, यात्रा, जनन, मरण तथा इतिहास श्रवण में। अत: प्रत्येक संक्रांति पर विशेषत: मकर संक्रांति पर स्नान नित्य कर्म है।

दान के प्रकारः मेष में भेड़, वृषभ में गाय, मिथुन में वस्त्र, भोजन एवं पेय पदार्थ, कर्कट में घृत धेनु, सिंह में सोने के साथ वाहन, कन्या में वस्त्र एवं गाय, नाना प्रकार के अन्न एवं बीज, तुला-वृश्चिक में वस्त्र एवं घर, धनु में वस्त्र एवं वाहन, मकर में इन्घन एवं अग्नि, कुम्भ में गाय जल एवं घास, मीन में नये पुष्प। अन्य विशेष प्रकार के दानों के विषय में देखिए स्कन्दपुराण , विष्णुधर्मोत्तर, कालिका आदि।

उपवासः मकर संक्रांति के सम्मान में तीन दिनों या एक दिन का उपवास करना चाहिए। जो व्यक्ति तीन दिनों तक उपवास करता है और उसके उपरान्त स्नान करके अयन पर सूर्य की पूजा करता है, विषुव एवं सूर्य या चन्द्र के ग्रहण पर पूजा करता है तो वह वांछित इच्छाओं की पूर्णता पाता है। आपस्तम्ब में आया है कि जो व्यक्ति स्नान के उपरान्त अयन, विषुव, सूर्यचंद्र-ग्रहण पर दिन भर उपवास करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है। किंतु पुत्रवान व्यक्ति को रविवार, संक्रांति एवं ग्रहणों पर उपवास नहीं करना चाहिए। राजमार्तण्ड में संक्रांति पर किये गये दानों के पुण्य-लाभ पर दो श्लोक हैं- 'अयन संक्रांति पर किये गये दानों का फल सामान्य दिन के दान के फल का कोटिगुना होता है और विष्णुपदी पर वह लक्षगुना होता है; षडशीति पर यह 86000 गुना घोषित है। चंद्र ग्रहण पर दान सौ गुना एवं सूर्य ग्रहण पर सहस्त्र गुना, विषुव पर शतसहस्त्र गुना तथा पूर्णिमा पर अनन्त फलों को देने वाला है। भविष्यपुराण ने अयन एवं विषुव संक्रांतियों पर गंगा-यमुना की प्रभूत महत्ता गायी है।

नारियों के दान का महत्वः मकर संक्रांति पर अधिकांशतः नारियां ही दान करती हैं। वे पुजारियों को मिट्टी या ताम्र या पीतल के पात्र, जिनमें सुपारी एवं सिक्के रहते हैं, दान करती हैं और अपनी सहेलियों को बुलाया करती हैं तथा उन्हें कुंकुम, हल्दी, सुपारी, ईख के टुकड़े आदि से पूर्ण मिट्टी के पात्र देती हैं। दक्षिण भारत में पोंगल नामक उत्सव होता है, जो उत्तरी या पश्चिमी भारत में मनाये जाने वाली मकर संक्रांति के समान है। पोंगल तमिल वर्ष का प्रथम दिवस है। यह उत्सव तीन दिनों का होता है। पोंगल का अर्थ है 'क्या यह उबल रहा' या 'पकाया जा रहा है?'

संक्रांति पर श्राद्धः कुछ आचार्यों के मत से संक्रांति पर श्राद्ध करना चाहिए। विष्णु धर्मसूत्र में आया है- 'आदित्य अर्थात् सूर्य के संक्रमण पर अर्थात जब सूर्य एक राशि से दूसरी में प्रवेश करता है, दोनों विषुव दिनों पर, अपने जन्म-नक्षत्र पर विशिष्ट शुभ अवसरों पर काम्य श्राद्ध करना चाहिए; इन दिनों के श्राद्ध से पितरों को अक्षय संतोष प्राप्त होता है। यहाँ पर भी विरोधी मत हैं। शूलापाणि के मत से संक्रांति-श्राद्ध में पिण्डदान होना चाहिए, किंतु निर्णयसिंधु के मत से श्राद्ध पिण्डविहीन एवं पार्वण की भाँति होना चाहिए। संक्रांति पर कुछ कृत्य वर्जित भी थे। विष्णुपुराण में वचन है- 'चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा एवं संक्रांति पर्व कहे गये हैं; जो व्यक्ति ऐसे अवसर पर संभोग करता है, तेल एवं मांस खाता है, वह विष्मूत्र-भोजन' नामक नरक में पड़ता है। ब्रह्मपुराण में आया है- अष्टमी, पक्षों के अंत की तिथियों में, रवि-संक्रांति के दिन तथा पक्षोपान्त (चतुर्दशी) में संभोग, तिल-मांस-भोजन नहीं करना चाहिए। आजकल मकर संक्रांति धार्मिक कृत्य की अपेक्षा सामाजिक अधिक है। उपवास नहीं किया जाता, कदाचित कोई श्राद्ध करता हो, किंतु बहुत से लोग समुद्र या प्रयाग जैसे तीर्थों पर गंगा स्नान करते हैं। तिल का प्रयोग अधिक होता है, विशेषत: दक्षिण में। तिल की महत्ता यों प्रदर्शित है- 'जो व्यक्ति तिल का प्रयोग छ: प्रकार से करता है वह नहीं डूबता अर्थात वह असफल या अभागा नहीं होता; शरीर को तिल से नहाना, तिल से उवटना, सदा पवित्र रहकर तिलयुक्त जल देना , अग्नि में तिल डालना, तिल दान करना एवं तिल खाना।

सूर्य प्रार्थनाः संस्कृत प्रार्थना के अनुसार "हे सूर्य देव, आपका दण्डवत प्रणाम, आप ही इस जगत की आंखें हो। आप सारे संसार के आरम्भ का मूल हो, उसके जीवन व नाश का कारण भी आप ही हो।" सूर्य का प्रकाश जीवन का प्रतीक है। चन्द्रमा भी सूर्य के प्रकाश से आलोकित है। वैदिक युग में सूर्योपासना दिन में तीन बार की जाती थी। महाभारत में पितामह भीष्म ने भी सूर्य के उत्तरायण होने पर ही अपना प्राणत्याग किया था। हमारे मनीषी इस समय को बहुत ही श्रेष्ठ मानते हैं। इस अवसर पर लोग पवित्र नदियों एवं तीर्थ स्थलों पर स्नान कर आदिदेव भगवान सूर्य से जीवन में सुख व समृद्धि के लिए प्रार्थना व याचना करते हैं।

मान्यताः यह विश्वास किया जाता है कि इस अवधि में देहत्याग करने वाले व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से पूर्णत: मुक्त हो जाते हैं। महाभारत महाकाव्य में वयोवृद्ध योद्धा पितामह भीष्म पांडवों और कौरवों के बीच हुए कुरुक्षेत्र युद्ध में सांघातिक रूप से घायल हो गये थे। उन्हें इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था। पांडव वीर अर्जुन द्वारा रचित बाणशैया पर पड़े भीष्म उत्तरायण अवधि की प्रतीक्षा करते रहे। उन्होंने सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर ही अंतिम सांस ली, जिससे उनका पुनर्जन्म न हो।

आभार का अवसरः पंजाब, बिहार व तमिलनाडु में यह समय फ़सल काटने का होता है। कृषक मकर संक्रांति को 'आभार दिवस' के रूप में मनाते हैं। पके हुए गेहूं और धान को स्वर्णिम आभा उनके अथक मेहनत और प्रयास का ही फल होती है और यह सम्भव होता है, भगवान व प्रकृति के आशीर्वाद से। विभिन्न परम्पराओं व रीति–रिवाजों के अनुरूप पंजाब एवं जम्मू-कश्मीर में "लोहड़ी" नाम से "मकर संक्रांति" पर्व मनाया जाता है। सिन्धी समाज एक दिन पूर्व ही मकर संक्रांति को "लाल लोही" के रूप में मनाता है। तमिलनाडु में मकर संक्रांति 'पोंगल' के नाम से मनाया जाता है, तो उत्तर प्रदेश और बिहार में 'खिचड़ी' के नाम से मकर संक्रांति मनाया जाता है। इस दिन कहीं खिचड़ी तो कहीं चूड़ादही का भोजन किया जाता है तथा तिल के लड्डू बनाये जाते हैं। ये लड्डू मित्र व सगे सम्बन्धियों में बांटें भी जाते हैं। संक्रांति काल अति पुण्य माना गया है। इस दिन गंगा तट पर स्नान व दान का विशेष महत्त्व है। इस दिन किए गए अच्छे कर्मों का फल अति शुभ होता है। वस्त्रों व कम्बल का दान, इस जन्म में नहीं; अपितु जन्म-जन्मांतर में भी पुण्यफलदायी माना जाता है। इस दिन घृत, तिल व चावल के दान का विशेष महत्त्व है। इसका दान करने वाला सम्पूर्ण भोगों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त करता है, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। उत्तर प्रदेश में इस दिन तिल दान का विशेष महत्व है। महाराष्ट्र में नवविवाहिता स्त्रियां प्रथम संक्रांति पर तेल, कपास, नमक आदि वस्तुएं सौभाग्यवती स्त्रियों को भेंट करती हैं। बंगाल में भी इस दिन तिल दान का महत्त्व है। राजस्थान में सौभाग्यवती स्त्रियां इस दिन तिल के लड्डू, घेवर तथा मोतीचूर के लड्डू आदि पर रुपये रखकर, "वायन" के रूप में अपनी सास को प्रणाम करके देती है तथा किसी भी वस्तु का चौदह की संख्या में संकल्प करके चौदह ब्राह्मणों को दान करती है। यह दिन सुन्दर पतंगों को उड़ाने का दिन भी माना जाता है। लोग बड़े उत्साह से पतंगें उड़ाकर पतंगबाजी के दांव-पेचों का मजा लेते हैं। पवित्र गंगा में नहाना व सूर्य उपासना संक्रांति के दिन अत्यन्त पवित्र कर्म माने गए हैं। संक्रांति के पावन अवसर पर हज़ारों लोग प्रयागराज के त्रिवेणी संगम, वाराणसी में गंगाघाट, हरियाणा में कुरुक्षेत्र, राजस्थान में पुष्कर, महाराष्ट्र के नासिक में गोदावरी नदी में स्नान करते हैं। गुड़ व श्वेत तिल के पकवान सूर्य को अर्पित कर सभी में बांटें जाते हैं। गंगासागर में पवित्र स्नान के लिए इन दिनों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)