विपक्षी गठबंधन से मायावती को अलग करने में अखिलेश हुए सफल, लेकिन चुनाव पर नहीं पड़ेगा असर

इससे पहले भी कांग्रेस के साथ सपा का हो चुका है गठबंधन, मगर नहीं दिखा असर

विपक्षी गठबंधन से मायावती को अलग करने में अखिलेश हुए सफल, लेकिन चुनाव पर नहीं पड़ेगा असर

लखनऊ, 01 अगस्त (हि.स.)। विपक्षी दलों का गठबंधन यूपीए से ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इंक्लूसिव अलायंस) हो गया। इन दिनों यह बहुत चर्चा में है। विपक्षी पार्टियां एकजुटता की हुंकार भर रही हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया भी इस चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे है, लेकिन इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो उप्र पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है। सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर मायावती को अलग-थलग करने में अखिलेश यादव सफल हो गये हैं।



2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ समझौता किया था। उस चुनाव में समाजवादी पार्टी 298 सीटों चुनाव लड़ी, जबकि समझौते के तहत कांग्रेस को 105 सीटें मिली थी। इस समझौते के बावजूद कुछ सीटों पर दोनों पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवार उतारे थे और दोनों पार्टियों को मिलाकर 54 विधानसभा सदस्य सदन में पहुंचे थे। कांग्रेस के सात विधानसभा सदस्य जीते थे, जबकि प्रदेश में सरकार चला चुकी समाजवादी पार्टी को मात्र 47 सीटों पर विजय मिली। समाजवादी पार्टी को कुल 1,89,23,769 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस को 54,16,540 वोट मिले थे। दोनों पार्टियों ने मिलकर 2,43,40,309 वोट मिले और दोनों ने 28.07 प्रतिशत वोट पाया। गठबंधन के बावजूद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के वोट शेयर में भी सात प्रतिशत से ज्यादा कमी आ गयी।



वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं अर्थात पांच वर्षों बाद ही गठबंधन के बावजूद 21 सीटों का घाटा हुआ। 2012 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी 355 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। उसका वोट प्रतिशत भी उस समय 11.63 प्रतिशत रहा। उसका वोट प्रतिशत भी गिरकर 6.25 प्रतिशत रह गया। इस तरह से दोनों पार्टियों में वोट प्रतिशत में आयी भारी गिरावट के बाद दोनों दलों के नेताओं ने आरोप-प्रत्यारोप शुरू कर दिया और कहा कि एक-दूसरे दल के उम्मीदवार पर वोट नहीं चढ़े। वहीं बहुजन समाज पार्टी को वोटों की संख्या ज्यादा थी, सीट कम। बहुजन समाज पार्टी को 1,92,81,340 वोट मिले थे, जबकि 403 सीटों पर चुनाव लड़कर उसे मात्र 19 सीट ही मिली थी। उसका वोट शेयर 22.23 प्रतिशत था।



अखिलेश यादव ने विधानसभा में कांग्रेस के साथ इस कारण समझौता किया था कि उस समय उनका चाचा के साथ विवाद चल रहा था। वे उस समय तक सत्ता में थे। उन्हें पारिवारिक कलह को दबाने के लिए दूसरी पार्टियों से समझौता कर चाचा से भारी दिखाने की आवश्यकता थी। इसके साथ ही उन्हें यह भी देखने की जरूरत थी कि समझौता उसी से हो, जिस दल का कोई यूपी में मुख्यमंत्री उम्मीदवार न हो। उन्होंन इन सब बातों पर ध्यान देकर कांग्रेस के साथ समझौता किया, लेकिन दोनों औधें मुंह गिर गये। समझौता बुरी तरह फ्लाॅप हुआ।



वैसे तो देखा जाय तो चुनाव में मतदाताओं की मानसिकता बदलने के लिए एक सप्ताह काफी होते हैं। कई ऐसे मुद्दे आते हैं, जिनसे मतदाताओं का झुकाव किसी एक पार्टी की तरफ हो जाता है। इसको भुनाने के लिए नरेंद्र मोदी बहुत बड़े गणितज्ञ हैं। कब लोगों के मन में राष्ट्रवाद की भावना जगानी है। कब अर्थव्यवस्था की बात करनी है और कब पार्टी की फंडिंग जुटानी है। इन सबमें मोदी और उनके नजदीकी लोग जानते हैं।



राजनीतिक विश्लेषक राजीव रंजन का कहना है कि वर्तमान में यदि विपक्ष के गठबंधन को वोट के नजरिये से देखें तो कांग्रेस का जनाधार यूपी में न के बराबर है। इस कारण इस गठबंधन से सपा और कांग्रेस के वोट बैंक में कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है। इससे इतना जरूर है कि केंद्रीय स्तर पर समाजवादी पार्टी मुखिया अखिलेश यादव अपनी प्रतिद्वंदी मायावती को अलग-थलग करने में सफल हो गये हैं। इससे लोकसभा चुनाव में मायावती के वोटरों में और निराशा भी आ सकती है, जिससे उसके वोट बैंक में और कमी आएगी। अब वह वोट बैंक खिसक कर सपा या कांग्रेस की तरफ जाएगा। यह नहीं कहा जा सकता। अब तक के आंकलन के अनुसार सिर्फ मुस्लिम वर्ग को छोड़कर दलित वर्ग अब भाजपा की ओर ही बढ़ रहा है।