परम्पराओं को अप्रासंगिक न समझें, ये हमारी मां के समान : डॉ. कपिल तिवारी
परम्पराओं को अप्रासंगिक न समझें, ये हमारी मां के समान : डॉ. कपिल तिवारी
प्रयागराज, 17 नवम्बर । भारत के ज्ञान एवं चेतना को संत तुलसीदास एवं संत कबीरदास ने लोक जीवन में प्रचलित भाषा के माध्यम से आम जनमानस में संचालित किया। अतः हमें अपने लोक को बचाने की आवश्यकता है। हम अपनी परम्पराओं को अप्रासंगिक न समझें। ये परम्पराएं हमारी मां के समान है।
उक्त उदगार बुधवार को श्रद्धेय अशोक सिंघल की पुण्यतिथि पर अरून्धती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ महावीर भवन में लोक जीवन में भारतीय चेतना के विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य वक्ता पद्मश्री डॉ. कपिल तिवारी ने व्यक्त किया।
उन्होंने कहा कि विषय लोक जीवन में भारतीय चेतना में लोक को छोड़ दिया जाय तो हमने जो शहर गढ़े हैं उनकी भारतीय चेतना विलुप्त हो गयी हैं। लोक से भारत के तथाकथित प्रबुद्धजन ये समझते हैं कि वह ग्रामीण, पिछड़ा है और उसको मुख्यधारा में लाना है परन्तु यह मुख्यधारा किसने तय की है क्या अमेरिका, यूरोप ने यह मुख्यधारा तय की है? भारत के लोक जीवन में जो चुप्पी है वही भारतीय जीवन है जो अपनी चुप्पी में शांत तरीके से भारतीय चेतना को जीवित किये हुये हैं। परन्तु आज की आधुनिकता 150-200 वर्षां में औपनिवेशिक काल से विकसित हुई है। भारत ने अपनी तथाकथित आधुनिकता अर्जित नहीं की है, बल्कि पश्चिम को ही आधुनिकता का पैमाना मान लिया है।
कहा कि भारत वास्तव में सनातन है वह जो हर क्षण अपने को नया करता है। भारत के झूठे इतिहास को भारत को अतीत बता दिया गया है। जबकि भारत अतीत में नहीं हो सकता, भारत आज भी सनातन है। जिस क्षण हम अपनी परम्परा को भूल गये तो हम अपनी मां को भूल गये। परम्परा मां की तरह है जो उंगली पकड़कर चलना सिखाती है। उंगली पकड़कर हमने ऐसी दौड़ लगायी तो लौटकर नहीं देखा कि मां कहां है, भाषा कहां है घर कहां है, यह पहचान नहीं आता है परन्तु अब भारत की चेतना में सदियों बाद परिवर्तन हो रहा है। जो शायद अब विदेशियों की आंखों से नहीं बल्कि अपनी आंखों से परम्पराओं को देखना प्रारम्भ कर दिया है। इतिहास की असंगतियों पर अब लोग चर्चा कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि लोक मातृशक्ति में उत्पन्न होता है। षट्मातृकाओं का विस्तार है। पहली मातृका धरती माता, दूसरी प्रकृति, तीसरी नदी, चौथी गाय, पांचवी स्त्री, छठीं मातृ का भाषा है। यही मातृ भाव हमने पहचाना और भारत को भारत माता माना। आज जर्मन वैज्ञानिक रिसर्च द्वारा यह बता रहे हैं कि कोमा में पड़े व्यक्ति के कान में उसकी मातृभाषा के शब्द उसकी कानों में लगातार कहते रहने से उसकी चेतना यदि एक प्रतिशत भी बाकी है तो वह लौट सकती है। भारत के इस ज्ञान एवं चेतना को संत तुलसीदास एवं संत कबीरदास ने लोक जीवन में प्रचलित भाषा के माध्यम से आम जनमानस में संचालित किया। अतः हमें अपने लोक को बचाने की आवश्यकता है। हम अपनी परम्पराओं को अप्रासंगिक न समझें। ये परम्पराएं हमारी मां के समान हैं।
अरून्धती पीठ के राष्ट्रीय संयोजक डॉ.चन्द्र प्रकाश ने कहा कि श्रद्धेय अशोक सिंघल का व्यक्तित्व बहुआयामी था, यद्यपि उनका जन्म आगरा में हुआ था परन्तु प्रयागराज उनकी कर्मभूमि थी, प्रयागराज से उनका विशेष लगाव था एवं उनका निवास प्रयागराज में था। लोक जीवन में भारतीय चेतना विषय बहुत ही व्यापक विषय है एवं विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। लोक जीवन ही भारत को जीवन्त बनाता है। स्वतंत्रता के पश्चात् कई मायनों में हमने अपने लोक जीवन से दूरी बनायी है परन्तु अब उस दूरी को समाप्त कर भारत को अपने पूर्ण वैभव को प्राप्त करने की आवश्यकता है।
श्रद्धेय अशोक सिंघल की पुण्यतिथि पर अरून्धती वशिष्ठ अनुसंधान पीठ, महावीर भवन, प्रयागराज में एक व्याख्यान ‘लोक जीवन में भारतीय चेतना’ का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम में अन्य प्रबुद्धजन के साथ कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. ईश्वर शरण विश्वकर्मा सदस्य उच्चत्तर शिक्षा सेवा आयोग ने की एवं मुख्य वक्ता के तौर पर डॉ. कपिल तिवारी जो कि पद्मश्री सम्मान से सम्मानित, सदस्य भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद, विदेश मंत्रालय एवं पूर्व निदेशक, आदिवासी लोककला अकादमी मध्य प्रदेश उपस्थित रहे।
कार्यक्रम में भारत के पूर्व अतिरिक्त न्यायवादी अशोक मेहता, पूर्वमंत्री नरेन्द्र कुमार सिंह गौर, डॉ. हरिवंश दीक्षित, प्रो.रामेन्द्र सिंह, आर.एस.एस. के विभाग संचालक कृष्ण चन्द्र, विहिप के प्रान्त उपाध्यक्ष विमल प्रकाश एवं सुरेश अग्रवाल, मनीष गोयल, महाधिवक्ता आशुतोष श्रीवास्तव, अजीत, पवन शुक्ला एवं अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।