गणतंत्र का आह्वान
गणतंत्र का आह्वान
चौहत्तर साल पहले आज ही के दिन भारत की संसद ने देश की शासन व्यवस्था चलाने के लिए एक संविधान स्वीकार किया था जिसने भारत सरकार अधिनियम-1935 की जगह ली। इस संविधान का आरम्भ उसकी उद्देशिका के साथ होता है और उद्देशिका का आरम्भ संविधान को लेकर कुछ आधारभूत स्थापनाओं के लिए भारतीय समाज की प्रतिश्रुति के साथ होता है। ये प्रतिश्रुतियां संविधान का आधार बनती हैं और उसके प्रयोग की सम्भावनाओं और सीमाओं को भी रेखांकित करती हैं। न्याय , स्वतंत्रता , समता और बंधुत्व के चार मानवीय और सभ्यतामूलक लक्ष्यों को समर्पित ये प्रतिश्रुतियां भारतीय समाज की उन भावनाओं के सार तत्व को प्रतिबिम्बित करती हैं जो एक आधुनिक राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त आकार देती हैं । एक तरह से पूरा संविधान ही इन्हीं प्रतिश्रुतियों को व्यवहार में लाने की व्यवस्था का विस्तार करने वाला एक आधुनिक दस्तावेज उपस्थित करता है। यह दस्तावेज इस बात का भी निर्देश देता है कि देश की यात्रा किस तरह से आगे बढ़े और इस बात की निगरानी भी हो सके कि यह यात्रा किस तरह हो रही है। विश्व का यह अब तक का सर्वाधिक विस्तृत संविधान जनता जनार्दन का जयघोष करते हुए जनता को सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न होने का सामर्थ्य देता है और सरकार से यह अपेक्षा करता है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा इसका अनुपालन किया जाएगा। साथ ही यह प्रावधान भी हुआ कि जरूरत पड़ने पर आवश्यकतानुसार लोकहित में इसमें बदलाव भी लाया जा सकेगा।
एक गम्भीर अर्थ में संविधान की उद्देशिका देश की प्रगति के लिए कसौटी का भी काम करती है। यह देशवासियों से पूछती भी है कि एक इकाई के रूप में देश की यात्रा किन पड़ावों से गुजर कर कहां पर पहुंची है। इस दृष्टि से निर्वाचित सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह उन उपायों का प्रावधान कर यह सुनिश्चित करती रहे कि इन महान लक्ष्यों की पूर्ति निर्बाध रूप से हो। प्रजा का सुख या लोक-संग्रह शासन के लिए लक्ष्य के रूप में प्राचीन काल से ही स्वीकृत रहा है। इसे ही ‘राम-राज्य’ भी कहा गया था और जिसका उल्लेख महात्मा गांधी ने भी किया था।
संविधान की उद्देशिका में उल्लिखित चार केंद्रीय लक्ष्यों का आपस में इतना घनिष्ट रिश्ता है कि हर एक की प्राप्ति दूसरे की प्राप्ति से जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए जब हम न्याय की बात करते हैं तो उसमें मुख्य रूप से आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में दो तरह की विषमताओं से पार पाने की बात आती है। पहली, वे जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं जैसे जातिगत भेद भाव और अस्पृश्यता और दूसरी वे जो आधुनिक समय में पैदा हो रही हैं। गौरतलब यह भी है कि इस बीच देश की जनसंख्या भी निरंतर बढ़ती रही है जिसके चलते जरूरी संसाधनों पर कई तरह के दबाव लगातार बढ़ते गए हैं। न्याय का सीधा रिश्ता अधिकारों की रक्षा और जो समाज के विभिन्न वर्गों को जो प्राप्तव्य है उसको पाने से है। न्याय को सुनिश्चित करने पर ही समता की उपलब्धि सम्भव हो पाती है। इसके लिए अवसरों की संरचना तक सबकी पहुंच जरूरी है। पहले से ही मौजूद विविधता के चलते विभिन्न समुदाय खुद को अवसरों के पायदान पर अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़े पाते हैं। यह भिन्नता समूहों के अंदर और समूहों के बीच दोनों ही तरह की होती है। उदाहरण के लिए कुछ समुदाय अन्य समुदायों की तुलना में गरीब हैं पर किसी भी समुदाय के सभी सदस्य एक जैसे नहीं होते। इस तरह नीची जाति में में भी धनी और ऊंची जाति में गरीब भी मिलते हैं।
आज के युग में सामर्थ्य ही स्वतंत्रता तय करती है और स्वतंत्रया से सामर्थ्य उपजती है। जहां परतंत्रता दूसरों के नियंत्रण में थोपे गए रास्ते पर चलने को बाध्य करती है स्वतंत्रता विकल्प चुनने की छूट देती है। उसकी मौलिक शर्त आत्मनिर्भरता होती है। समता और बंधुत्व सामाजिक विविधताओं के बीच सहज स्तर पर पारस्परिक रिश्तों को जीने सम्भव करते हैं। थोड़ी गहराई में जाएं तो यह बात साफ हो जाएगी कि स्वतंत्रता तभी संभव है जब समता है। विषमता का होना प्रभुत्व और वर्चस्व को जन्म देता है जो दूसरों की स्वतंत्रता को बाधित करता है। सौहार्द के बिना सहयोग सम्भव नहीं होता है और आज के युग में अकेले दम पर कुछ भी करना संभव नहीं है। साथ ही सद्भाव की परिस्थिति होने पर ही सक्रिय और सर्जनशील प्रवृत्तियों का विकास हो सकेगा। इस तरह उद्देशिका की स्थापनाएं बिना किसी भेद-भाव के सबको साथ रहने और मानवीय गरिमा के अनुसार जीवन में आगे बढ़ते रहने के विकल्प उपलब्ध कराती हैं। ये शोषण और दमन के विरुद्ध निर्भय हो कर आत्म-विश्वास और आपसी सौहार्द के साथ जीवन जीने के लिए आमंत्रण देती हैं। गणतंत्र का उत्कर्ष इन्हीं स्थितियों को बनाने और बनाए रखने में निहित होता है और सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब किसी दूसरे द्वारा नहीं बल्कि जनता और उसके चुने प्रतिनिधियों द्वारा होता है। आधुनिक गणराज्य या ‘रिपब्लिक’ का स्पष्ट आशय राज्य की ऐसी व्यवस्था से है जो शासक विशेष की व्यक्तिगत सम्पदा न हो । इस अर्थ में गणतंत्र जनता का स्वराज है।
गणतंत्र या रिपब्लिक आज एक विधिसम्मत शासन प्रणाली के रूप में अक्सर पश्चिम की देन मानी जाती है परंतु ‘गण’ शब्द का उपयोग वेद और पुराण आदि में भी मिलता है। पाणिनि के ‘अष्टाध्यायी’ और व्यास के ‘महाभारत’ में गणों और गण-संघ, गणसभा और मतदान का उल्लेख मिलता है। लिच्छवियों का गणराज्य जिसकी राजधानी वैशाली थी विश्व का सबसे प्राचीन गणराज्य है। यह आज से ढाई हजार वर्ष पहले भारत में गणतांत्रिक व्यवस्था की उपस्थिति को दर्ज कराता है। यहां समितियां थीं जो आम जनता के लिए नीति-निर्माण करती थीं। छठीं सदी ईसा पूर्व यहां का शासक जन प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता था। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा-वृत्तांत से भी इसकी पुष्टि होती है। बौद्ध काल में सोलह महाजनपदों का जिक्र मिलता है। गौतम बुद्ध का जन्म शाक्य गण में हुआ था। तब वज्जियों की वैशाली भी एक प्रमुख गणराज्य था जो मगध की ही तरह महत्वपूर्ण था। कालांतर में मुग़ल और अंग्रेज आक्रांताओं ने भारत भूमि पर आधिपत्य स्थापित किया । लंबे संग्राम के बाद 15 अगस्त 1947 को अग्रेजों ने अखंड भारत देश को दो टुकड़ों में बांट दिया और दूसरे टुकड़े को पाकिस्तान का नाम दिया। तब से लेकर आज तक भारतीय गणतंत्र अनेक आंतरिक और बाह्य चुनौतियों का सामना करते हुए निरंतर आगे बढ़ता रहा है। यदि आपातकाल की दुखद घटना को छोड़ दें तो अब तक जनता द्वारा विधिवत चुनी हुई सरकार का ही निरंतर शासन रहा है । जनता ने सरकारी नीतियों से अपनी संतुष्टि और असंतुष्टि के आधार पर समर्थन दिया और विभिन्न दलों की सरकारें बनती रहीं।
इस समय अपार जन समर्थन के साथ बहुमत वाली गैर-कांग्रेसी भाजपाई सरकार दूसरे सत्र में सतानशीं है। भारतीय जनता पार्टी की सरकारें भारत के अधिकांश प्रदेशों में काबिज हैं। सरकारी योजनाओं का लाभ जन-जन तक पहुंचाते हुए एक विश्वसनीय नेता के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने संवाद-कौशल से समर्थ भारत की नई छवि गढ़ने में सफल हैं। उनके नेतृत्व में आज कोविड के बाद के कठिन वैश्विक हालातों में भी देश की अर्थव्यवस्था उन्नति की ओर अग्रसर है। जी-20 देशों में भारत की गणना सबसे तेजी से विकसित हो रही अर्थ व्यवस्था में की जा रही है और भारत को उसकी अध्यक्षता भी मिली है। विश्व के मंचों पर आज भारत की आवाज को गौर से सुना जाता है।
गणतंत्र दिवस के अवसर पर जब मंथन करते हैं तो यही लगता है कि स्वतंत्रता और ‘स्वराज’ यानी अपने ऊपर अपना राज स्थापित करने का अवसर तो मिला पर उसे संभालना सरल न था। स्वराज के साथ जिम्मेदारी भी आती है। हमने स्वतंत्रता का प्रीतिकर स्वाद तो चखा पर उसके साथ दायित्व स्वीकारने और कर्तव्य निभाने में कुछ ढीले पड़ते गए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की जान है परन्तु निरंकुशता और स्वच्छंदता समाज के लिए घातक है । देश को देने की जगह चट-पट क्या पा लें इस चक्कर में भ्रष्टाचार, भेद-भाव तथा अवसरवादिता आदि को छूट मिलने लगी । साल भर चुनाव की घंटी बजते देख आम आदमी थका-थका सा दिखने लगा है। उसकी बढ़ती तटस्थता और उदासीनता को देखते हुए राजनीतिक दलों को विचार करना चाहिए कि देश में लोक सभा और प्रदेशों की विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाए । बेरोजगारी, महंगाई और किसानों की समस्याओं का समाधान चिर प्रतीक्षित है पर धन-बल, अपराध और परिवारवाद के साथ राजनीति चिंताजनक होती जा रही है। सार्वजनिक सभाओं में ही नहीं लोकसभा और राज्यसभा में भी सार्थक विचार-विनिमय की जगह अनर्गल टिप्पणी, तोड़-फोड़ और अभद्र व्यवहार की घटनाएं निरंतर बढ़ रही हैं । राजनीति में शुचिता लाए बिना देश की तरक्की को गति नहीं मिल सकती। जन कल्याण के स्वप्न को पूरा करने के लिए उत्सव की मानसिकता और आडंबरों और कर्मकांडों से उबरना होगा। देश-ऋण स्मरण करते हुए देश को जीवन में जगह देनी होगी और अमृतकाल में इस गणतंत्र को उन्नति की दिशा में ले जाने के लिए तत्पर होना होगा।