हिजाबः अरबों की अंधी नकल क्यों?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी सरकार ने दुनिया के देशों की धार्मिक स्वतंत्रता की देख-रेख के लिए एक व्यापक राजदूत (एंबेसाडर एट लार्ज) नियुक्त किया हुआ है। उसका नाम है- रशद हुसैन। भारतीय मूल के इन राजदूत महोदय ने हिजाब के पक्ष में अपना फतवा जारी कर दिया है। उन्होंने कहा है कि कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पर पाबंदी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यह औरतों और युवतियों के साथ अन्याय है। यही बात अमेरिका की इस्लामी परिषद ने भी कही है। प्रसिद्ध अमेरिकी बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की ने उक्त बयानों का समर्थन तो किया ही है, साथ ही यह भी कह दिया है कि मोदी सरकार भारत की धर्म-निरपेक्षता को प्रयत्नपूर्वक खत्म कर रही है और मुसलमानों को ‘प्रताड़ित अल्पसंख्यकों’ में परिणत कर रही है।
चोम्सकी का निर्भीक बुद्धिजीवी के तौर पर मैं काफी सम्मान करता हूं लेकिन यह बयान तो उन्होंने अज्ञानवश ही दे डाला है। उन्हें इस विवाद के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है। पहली बात तो यह है कि मोदी की केंद्र सरकार का इस विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। केंद्र सरकार ने इसके संबंध में कोई आदेश जारी नहीं किया है। दूसरी बात यह है कि यह सामान्य रूप से हिजाब पहनने पर नहीं, स्कूलों में हिजाब पहनने पर बहस है। तीसरी बात यह है कि यह मामला अभी भी अदालत में है। इसीलिए चोम्स्की और हुसैन के भारत-विरोधी बयान उनके पूर्वाग्रह के सूचक हैं। पाकिस्तानी नेताओं के बयानों पर क्या टिप्पणी की जाए?
वैसे भी दुनिया के सिर्फ दो तीन इस्लामी देशों, जैसे अफगानिस्तान और ईरान में ही महिलाओं पर हिजाब पहनने की अनिवार्यता है। सउदी अरब और पाकिस्तान में भी हिजाब अनिवार्य नहीं है जबकि सउदी अरब इस्लाम का जन्म स्थान है और पाकिस्तान दुनिया का ऐसा अकेला देश है, जो इस्लाम के नाम पर बना है। दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों- जैसे चीन, श्रीलंका, फ्रांस, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, आस्ट्रिया, हालैंड, बेल्जियम आदि में हिजाब पर सिर्फ स्कूलों में ही नहीं, घर के बाहर कहीं भी हिजाब पहनने पर पाबंदी है। कनाडा के प्रांत क्यूबेक में फातिमा अनवरी नामक एक अध्यापिका को सिर्फ इसीलिए नौकरी से निकाल दिया गया कि वह हिजाब लगाकर स्कूल में आती थी। 2019 में क्यूबेक में मुस्लिमों के हिजाब, यहूदियों के किप्पा और सिखों की पगड़ी पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अध्यापकों, वकीलों, जजों और सरकारी अफसरों पर विशेषतः लागू होगा।
वैसे मैं यह मानता हूं कि यदि कोई महिला हिजाब या बुर्का या नकाब या घूंघट पहनना चाहती है तो उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। इस मामले में तो भारत इतना उदार है कि हजारों नंगे साधुओं के गंगा-स्नान और दिगंबर जैन मुनियों के विचरण पर कोई भी आपत्ति नहीं करता है तो अपना शरीर और मुंह ढंकनेवाली महिलाओं पर वह एतराज क्यों करेगा? एतराज बस इसी बात पर है कि स्कूल-कालेजों और सरकारी दफ्तरों में इस पोंगापंथी परंपरा को क्यों स्वीकार किया जाए? क्या घूंघटधारी हिंदू महिला अध्यापिकाएं और महिला पुलिस अफसर मजाक का विषय नहीं बन जाएंगी?
और अब तो यह मामला बिल्कुल सांप्रदायिक बन गया है। हिजाब वगैरह डेढ़ हजार साल पुरानी अरब देशों की मजबूरी थी। उस समय वह ठीक और जरूरी भी थी। उसका इस्लाम के मूल सिद्धांतों से कुछ लेना-देना नहीं है। प्राचीन अरबों की अंधी नकल करना एक बात है और इस्लाम के क्रांतिकारी सिद्धांतों का मानना दूसरी बात है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)