शंकराचार्य स्वामी स्वारूपानंद सरस्वती महाराज का बैकुंठ धाम गमन

सोमवार को दोपहर 1:30 बजे तक अंतिम दर्शन, झौतेश्वर में दी जाएगी समाधि

शंकराचार्य स्वामी स्वारूपानंद सरस्वती महाराज का बैकुंठ धाम गमन

नरसिंहपुर, 11 सितंबर। रविवार को ढलती दोपहर को धर्म ध्वजावाहक धर्म सम्राट द्वाराका एवं ज्योतिष पीठाधिश्वर पूज्य महाराज जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी स्वारूपानंद सरस्वती जी महाराज ने 99 वर्ष की आयु में झोंतेश्वर स्थित परहंसी गंगा आश्रम में अंतिम सांस ली। महाराजश्री के बैकुण्ड धाम गमन की सूचना प्राप्त होते ही भक्तों एवं धर्म प्रेमी जनों सहित सम्पूर्ण देश मे शोक की लहर दौड़ गई। भक्तों को सोमवार दोपहर 1:30 बजे तक दर्शन हेतु समय नियत किया गया।



लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास बनाई गई समाधि

महाराज श्री के ब्रहम्लीन होने की जानकारी मिलते ही भक्तों की भीड़ बढ़ती जा रही है। समीति द्वारा महाराज श्री को स्रानदर्शन के उपरांत पालकी से कुंड स्थल पर लाया गया, जहां सोमवार को दोपहर 1: 30 बजे तक भक्तों दर्शन मिल सकेंगे। झोंतेश्वर स्थित लक्ष्मी नारायण मंदिर के पास बने उद्यान में समाधि स्थल बना गया है। यात्रा सभी मंदिरों से होते हुये समाधि स्थल पहुंंचेगी जहां पर अंतिम दर्शन उपरांत समाधिग्रह कराया जाएगा।

परिचय

महराज श्री का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश में सिवनी जिले के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में पिता धनपति उपाध्याय और मां गिरिजा देवी के यहां हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। 9 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्राएं प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 वर्ष की उम्र में वह क्रांतिकारी साधु के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में 9 माह एवं मध्यप्रदेश की जेल में 6 माह की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष रहे।



1940 में दंडी संन्यासी बनाये गए और 1971 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। 1980 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।



धर्म के लिये रहे हमेशा अडिग

महाराजश्री महज 19 साल की उम्र में ही क्रांतिकारी साधु के रूप में उभरे चुके थे। स्वामी स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती दो पीठों के शंकराचार्य थे। सनातन धर्म की रक्षा के लिए आजीवन वे संघर्षरत रहे। 1942 के स्वतंत्रता संग्राम में भी वे सक्रिय रहे। महाराजश्री का सनातन धर्म, देश और समाज के लिए अतुल्य योगदान रहा है। स्वतन्त्रता सेनानी, रामसेतु रक्षक, गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करवाने वाले तथा रामजन्मभूमि के लिए लम्बा संघर्ष करने वाले, गौरक्षा आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रही, रामराज्य परिषद् के प्रथम अध्यक्ष, पाखण्डवाद के प्रबल विरोधी रहे थे। ज्ञात रहे कि शंकराचार्य ने बीती हरितालिका को ही अपना 99वां जन्मोत्सव मनाया था।