भारतीयता के उत्तरायण होने का पर्व है मकर संक्रांति
भारतीयता के उत्तरायण होने का पर्व है मकर संक्रांति
13 जनवरी । सनातन धर्म शास्त्र और पंचांग के अनुसार वर्ष के सभी 12 महीनों में संक्रांति होता है। लेकिन सभी संक्रांति में मकर संक्रांति का अलग महत्व है। प्राचीन काल से मान्यता है कि इस दिन सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं। कहा जाता है कि इसी संक्रांति तिथि को भागीरथ अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए भागीरथी को लेकर गंगासागर पहुंचे थे।
नवविहान की इस बेला में सूर्य का उत्तरायण होना भारतीयता का उत्तरायण होना है। सूर्य के उत्तरायण होने का अर्थ है सूर्य द्वारा मकर रेखा को संक्रांत करना तथा धनु से मकर तक पहुंचना। ज्योतिष विधा में मकर एक राशि है, जिसके स्वामी शनि हैं, शनि को सूर्य पुत्र कहा गया है। सूर्य भारत की आचार्य परंपरा के प्रतीक और तीव्र गति के देवता हैं, जबकि शनि मंद गति के देवता माने जाते हैं।
इसलिए मकर संक्रांति को लेकर यह मान्यता है कि इस दिन भगवान भास्कर अपने पुत्र से मिलने जाते हैं। शनि अंधकार, तम और मद्धिम गति के ग्रह हैं। सूर्य की रश्मियां बहुत देर से शनि पर पहुंचती हैं। इसलिए मकर का सूर्य पर पहुंचना ब्रह्मांड में सर्वत्र प्रकाश के पहुंचने और सौर परिवार के अंतिम ग्रह तक प्रकाश के प्रकाशित होने का प्रतीक है। भारत में इस दिन से दिन बड़ा शुरू होता है। भारत में दिन का बड़ा होना ही देवताओं का दिन होना है। वहीं उत्तरायण यानी पूर्व से उत्तर की ओर पूर्व एवं उत्तर का साथ होना है।
पूर्व से उत्तर अर्थात पहले के प्रकाश को अतिक्रांत कर नया प्रकाश उत्पन्न करना है, यही ज्ञान का परिपक्व होना है। पूर्व और उत्तर मिलते हैं तो ईशान कोण बनता है। ईशान देवताओं की दिशा है, भारत में अरुणोदय ईशान से प्रशस्त माना जाता है। महाभारत में भी युधस्व भारत के विजय का पर्व उत्तरायण में होता है। उत्तरायण में भीष्म पितामह के द्वारा देहत्याग का निश्चय केवल भौतिक अर्थ में मृत्यु नहीं, बल्कि यह भौतिक लालसाओं का त्याग है, भौतिक सीमाओं से निस्सीम संक्रांति है।
खगोलीय घटना की दृष्टि से मकर संक्रांति सौर परिवार के केंद्र सूर्य से उसकी परिधि शनि तक सबके प्रकाशित होने का पर्व है, जिसे समूचा भारत मनाता है, सभी साथ मिलकर मनाते हैं। इस दिन से खरमास का समापन भी होता है, खरमास यानी कंटीले दिन, जो खर और कुश की तरह चुभते हैं। उस खर और कुश सी शीत की चुभन से मुक्ति है यह पर्व। शीत से चुभन की मुक्ति का उल्लास स्नान के मेलों में उछाल मारता है। इस दिन सूर्य अपनी रश्मियों से प्रकाश और ऊर्जा को बांटते हैं। भारत का जन इस अवसर पर सर्वत्र दान देता है। कहीं चावल के मीठे पीठे तो कहीं धान की खीलों की लाई, तिल और गुड़ तो पूरे देश में प्रचलित हैं।
सूर्य की रश्मियों से ज्ञान और प्रकाश आता है, लेकिन यह ज्ञान फलवान तब होगा, जब स्नेह और मिठास मिलाकर बांटे जाएं। तिल का स्नेह, गुड़ की मिठास और तिल एवं गुड़ के बने लड्डू दान देने का मतलब है सर्वत्र नेह-छोह के रिश्ते बढ़े, सर्वत्र माधुर्य बढ़े। यह पर्व देवताओं का नवविहान है तो वैदिक भारत का नववर्ष भी। व्यापारियों और श्रेणी संघटनों के लिए संक्रांति है तो किसानों के लिए खिचड़ी है। सर्वत्र जहां भी मकर संक्रांति है, वहां तिल है, गुड़ है, कृषि-उत्पादों की खिचड़ी है, दान है, स्नान है, उत्साह है, उमंग है।
खिचड़ी सभी अनाजों का मिल जाना है। पककर सुपाच्य हो जाना है, ज्ञान भी पककर तरल हो जाता है। इसीलिए संक्रांति एक ऐसा पर्व है, जो लौकिक भी है और शास्त्रीय भी। लोक के आयोजन में शास्त्रीयता है और शास्त्रीय अनुष्ठान में लोक की उपस्थिति है। यह त्योहार लोक और शास्त्र का, लौकिक और पारलौकिक का, गीत और गति का, प्रकाश और प्रसार का पर्व है। इसीलिए यह भारतीयता का उत्तरायण पर्व है।
मकर संक्रांति के दिन ही भगीरथ अपने पूर्वजों महाराज सगर के पुत्रों को मुक्त करने के लिए भागीरथी को लेकर गंगासागर पहुंचे थे। इस दिन सागर से मिलने वाली भागीरथी काशी में उत्तरवाहिनी होती है। इस अवसर पर गंगा स्नान का विशेष महत्व है, लेकिन काशी में स्नान का विधान श्रेष्ठतम है। कुंभ का पर्व मकर में अपने और दूसरे से मुक्ति का पर्व है। स्वयं के साथ अन्य के पापों की मुक्ति का पर्व भी भारतीयता ही है। संक्रांति का यह पर्व अन्न के योग से पुष्ट शरीर के साथ ब्रह्मांडीय चेतना और ग्रह के साथ सामान्यजन को जोड़ने वाला है। यह नई फसल के घर-खलिहान में आने के साथ देवताओं और प्रकृति के प्रति उल्लासमय कृतज्ञता के प्रकटीकरण का पर्व है।
महाराष्ट्र में इस दिन तिल एवं गुड़ कि हलवा बांटते समय कहा जाता है ''तिल, गुड़ ध्याह आणि गोड़ गोड़ बोला'' अर्थात तिल, गुड़ खाओ और मीठा-मीठा बोलो। तमिलनाडु में इसे पोंगल के रूप में मनाते हैं, जिसमें पूरे परिवेश को कूड़े-करकट से मुक्त कर लक्ष्मी पूजन और पशुधन पूजन करके मिट्टी के बरतनों में खीर पकाई जाती है। खीर पकाना और बांटना सात्त्विक नेह और पोषण का प्रतीककरण है। पोंगल खेती और बेटी की जो भारतीय संस्कृति है, उसको जीवन-व्यवहार में रूपांतरित करने का दिन है। इसलिए इस दिन बेटी और दामाद को बुलाकर उनका स्वागत-सत्कार किया जाता है। भोगासी बिहू में यह नृत्य और कला के साथ प्रकट होता है तो पोंगल में स्वच्छता, पवित्रता और सम्मान के रूप में। उत्तर भारत में लोहड़ी के रूप में ओज और नृत्य के साथ प्रसन्नता को नाच-गान से बांटने के रूप में आयोजित होता है तो गंगा-यमुना के किनारों पर खिचड़ी के दान और गांव-गांव सहभोज के आयोजन में लोकपर्व के रूप में आयोजित होता है।
सूर्य के उत्तरायण का यह पर्व केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि जहां-जहां भारतीय जीवन दृष्टि मिलती है, उन सब देशों में है। बांग्लादेश में पौष संक्रांति है तो नेपाल में माघी संक्रांति या सूर्योत्तरायण। नेपाल की थारू जाति के लिए यह माघी है। थाईलैंड में सोंगकरन है तो लाओस में पी मा लाउ। म्यांमार में इसे थ्रिरआन के नाम से जानते हैं तो कंबोडिया में मोहा संगक्रांत। श्रीलंका में भी यह पोंगल और उझवल तिरुनल के रूप में मनाया जाता है। कुल मिलाकर कहें तो मकर संक्रांति का यह पावन अवसर सिर्फ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए भारतीय सनातन संस्कृति का प्रतीक भी बन गया है।