चार दिवसीय लोक आस्था का पर्व डाला छठ की शुरुआत सोमवार नहाय खाय से
बाजारों में छठ पर्व की रौनक,मौसमी फल , सूप, दउरी, टोकरी की अस्थायी दुकानें सजी
वाराणसी,07 नवम्बर । दीपावली,अन्नकूट और गोधन पर्व बीतने के बाद धर्म नगरी काशी में महिलाएं चार दिवसीय डाला छठ पूजा की तैयारियों में जुट गई हैं। रविवार को सूर्योपासना के महापर्व की तैयारी में जुटी महिलाएं और उनके घर के पुरुष सदस्यों ने वेदी बनाने के लिए गंगा और वरुणा नदी किनारे तथा कुंड और तालाब पर जगह छेंकी और विधिवत वेदी बनाई। काॅलोनियों में और मोहल्लों में कई जगह लोग अस्थायी गढ्ढा खोदकर उसमें पानी भरकर किनारे वेदी बनाते देखे गये। कई जगहों पर लोगों ने अपने घर के छतों पर अस्थायी कुंड का इंतजाम किया। महिलाएं घर में साफ-सफाई,पूजन सामग्री जुटाने के साथ सूप, दउरी, टोकरी की खरीदारी में भी जुटी रहीं।
वाराणसी में लंका थाना क्षेत्र के सामने घाट की काॅलोनियों में जहां बिहार के नागरिक बहुतायत में रहते हैं, छठ की तैयारी तेजी से हो रही है। शहर के अन्य हिस्सों में भी तैयारी चल रही है।
बताते चलें कि चार दिवसीय लोक पर्व डाला छठ की शुरुआत व्रत का आठ नवंबर सोमवार को नहाय खाय के साथ शुरू हो रहा है । पहले दिन पूरे घर की साफ- सफाई की जाती है और स्नान करने के बाद व्रत का संकल्प लिया जाता है। इस दिन चना,दाल, कद्दू की सब्जी और चावल का प्रसाद ग्रहण किया जाता है। दूसरे दिन नौ नवम्बर को खरना से व्रत की शुरुआत होगी। इस दिन महिलाएं पूरे दिन व्रत रखती हैं और शाम को मिट्टी के चूल्हे पर गुड़ वाली खीर का प्रसाद बनाती हैं और फिर सूर्य देव की पूजा करने के बाद यह प्रसाद ग्रहण किया जाता है। इसके बाद व्रत का पारण छठ के समापन के बाद ही किया जाता है। तीसरे दिन 10 नवम्बर को महिलाएं निर्जल व्रत रहकर शाम को अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य देंगी। महिलाएं नदी या तालाब में खड़ी होकर भगवान सूर्य देव को अर्घ्य देंगी। चौथे और अन्तिम दिन महिलाएं उगते सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत का समापन करेंगी।
लोक परम्परा में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को महाछठ का पर्व मनाया जाता है। मान्यता के अनुसार छठ का व्रत संतान की प्राप्ति, कुशलता और उसकी दीर्घायु की कामना के लिए किया जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत को कोई संतान नहीं हुई, इस कारण वे बहुत दुखी रहते थे। महर्षि कश्यप के कहने पर राजा प्रियव्रत ने एक महायज्ञ का अनुष्ठान संपन्न किया। जिसके परिणाम स्वरूप उनकी पत्नी गर्भवती तो हुई लेकिन दुर्भाग्य से बच्चा गर्भ में ही मर गया। पूरी प्रजा में मातम छा गया। उसी समय आसमान में एक चमकता हुआ पत्थर दिखाई दिया, जिस पर षष्ठी माता विराजमान थीं। राजा प्रियव्रत ने उन्हें देखा और श्रद्धावश उनका परिचय पूछा। माता षष्ठी ने कहा कि- मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री हूं और मेरा नाम षष्ठी देवी है। मैं दुनिया के सभी बच्चों की रक्षक हूं और सभी निःसंतान स्त्रियों को संतान सुख का आशीर्वाद देती हूं। इसके उपरांत राजा प्रियव्रत की प्रार्थना पर देवी षष्ठी ने उस मृत बच्चे को जीवित कर दिया और उसे दीर्घायु होने का वरदान दिया। देवी षष्ठी की ऐसी कृपा देखकर राजा प्रियव्रत बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने षष्ठी देवी की पूजा-आराधना की। मान्यता है कि राजा प्रियव्रत के द्वारा छठी माता की पूजा के बाद यह त्योहार मनाया जाने लगा। एक अन्य कथा है कि माता सीता ने भी छठ का व्रत किया था। लंका पर विजय पाने के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया था। सूर्यदेव की पूजा की। सप्तमी को सूर्योदय के वक्त फिर से पूजा-अर्चना कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।